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इस ब्लॉग का मुख्य मकसद नयी पीढ़ी में नई और विवेकपूर्ण सोच का संचार करना है|आज के हालात भी किसी महाभारत से कम नहीं है अतः हमें फिर से अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की प्रेरणा केवल महाभारत दे सकता है|महाभारत और कुछ सन्दर्भ ब्लॉग महाभारत के कुछ वीरो ,महारथियों,पात्रो और चरित्रों को फिर ब्लोगिंग में जीवित करने का ज़रिया है|यह ब्लॉग महाभारत के पात्रों के माध्यम से आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है|

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Wednesday, June 26, 2013

महाभारत और जयद्रथ : महाभारत ब्लॉग १८



महाभारत के महासमर में कई रथी , महारथी युद्ध लड़े । कुछ रण भूमि में वीरगति को प्राप्त हुए और कुछ जीत कर वसुंधरा पर राज करने लगे । इस जयसहिंता में कई पात्रों में से एक पात्र जयद्रथ भी है जिसका युद्ध के तेहरवे तथा चौहदवे दिन का योगदान इस युद्ध की कुटिलता व दिव्यता के संघर्ष को प्रदर्शित करता है । यह अध्याय वासुदेव कृष्ण की गुप्तचर प्रणाली और शत्रु के सभी रहस्यों को जानने की विधा को इंगित करता है । वैसे तो कृष्ण इस युद्ध में मात्र अर्जुन के सारथि थे परन्तु वास्तव में वे इस युद्ध के सारथि थे जिसकी माया के वशीभूत सभी योद्धा युद्ध में संलग्न हो अपना सब कुछ दाव पर लगाने को आतुर थे । मधुसूदन इस युद्ध में अजय योद्धा थे जिन्हें केवल और केवल धर्मजन्य प्रेम और भक्ति से जीता जा सकता था । जहाँ सभी राजन संसार में शासक थे वहीँ यह ग्वाला संसार का था जिसकी निष्ठा धर्मस्थापना के अतिरिक्त कही और नहीं थी। 


जयद्रथ सिन्धु नरेश तथा वृधाक्ष्त्र का पुत्र था । उसका विवाह कौरव राजकुमारी दुशाला के साथ हुआ था जो सौ कौरव भाइयों में एक मात्र बहिन थी । अतः दुशाला कौरवों के साथ पांडवों को भी समान रूप से प्रिय थी । चूँकि जयद्रथ पूरे कुरु वंश का दामाद था अतएव उसका कुरुओं में पर्याप्त सम्मान था ।


इतना सब होते हुए भी जयद्रथ अज्ञान व अधर्म में आकंठ डूबा हुआ था । अनैतिकता उसके आचरण की एक विशेषता बन गयी थी अतः वह अपने समान विचारों और आचरण वाले कौरवों के पक्ष में युद्ध लड़ा और केशव के माया चक्र ने फंस कर मारा भी गया । 


जब धर्म में बंधे व जुए में हारे युधिष्ठिर को काम्यक वन में वनवास के लिए जाना पड़ा | एक बार दुर्योधन ने मरुधरा के समीप स्थित वन में रह रहे पांडवों को प्रताड़ित करने के लिए जयद्रथ को भेजा । जयद्रथ ने अपने सभी साथियों यथा शिवि जनपद के राजकुमार तथा सभी सेना प्रमुखों समेत मरुधरा से पांडवों पर चुपके से आक्रमण किया तथा योजनाबद्ध पांडवों को द्रोपदी से दूर भेज दिया ।  द्रौपदी को पीछे से अकेले पाकर सिंधुनरेश जयद्रथ द्रौपदी के पास आया और उसके रूप को देख कामासक्त हो गया तथा द्रौपदी से प्रणय निवेदन कर बैठा |द्रौपदी ने गांधारी पुत्री दुशाला का पति जानते हुए जयद्रथ के इस दुह्साहस को क्षमा कर दिया परतु कामासक्त जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया |जब पांडव वन से लौटे तो अन्य व्यक्तियों ने पूरा वृतांत सुनाया तब युधिष्ठिर की आज्ञानुसार पांडवो ने जयद्रथ को युद्ध में हरा कर बंदी बना कर युधिष्ठिर के समक्ष पेश किया|तब जयद्रथ को मारने का सुझाव आया तब दुशाला के विधवा होने के भय से पांडवो ने जयद्रथ के केश काटकर सर पर पांच बालो के गुछे छोड़ दिए ताकि जयद्रथ इस अपमान को याद रखे और भविष्य में ऐसी गलती न करे |

इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए जयद्रथ ने महादेव शिव की कठिनतम तपस्या की । शिव शंकर जो आशुतोष , नीलकंठ , शम्भू , अविनाशी , गंगाधर , महादेव और कैलाशी है ; ने जयद्रथ की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे एक आयुध दिया जो एक दिन तक अर्जुन को छोड़ सभी पांडवों को एक साथ युद्ध में रोके रख सकता था । 

जयद्रथ के पिता वृधाक्ष्त्र ने संन्यास लेकर तपस्यारत हो एक साधु का जीवन बिताना आरम्भ कर दिया था । जब जयद्रथ अपने पिता से मिला तब उसने भीष्म के समान इच्छा मृत्यु का वरदान माँगा परन्तु यह वर देने में असमर्थ उसके पिता ने उसको वर दिया कि जिसके द्वारा उसका शीर्ष काटकर भूमि पर पटका जायेगा उसका शिर भी उसी समय सौ टुकड़ों में टूटकर बिखर जायेगा ।


जयसहिंता के अनुसार युद्ध के तेहरवें दिन कौरव सेना के प्रधान सेनापति आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने का विचार रखा ताकि युद्ध समाप्त हो जाये और पांडव हार जाये अतः उन्होंने युद्ध के भयंकरतम व्यूहों में एक 'चक्रव्यूह ' की रचना करने का विचार किया|वैसे युद्ध में कई युद्ध व्यूह उपयोग आते थे जैसे "सर्पव्यूह","कुर्मव्यूह" आदि पर 'चक्रव्यूह ' सर्वाधिक भयंकर और दुर्जेय था|परन्तु पांडवों में अर्जुन और उनका सारथि मधुसूदन प्रत्येक व्यूह को तोडना जानते थे चाहे वो 'चक्रव्यूह ' क्यों न हो|अतः गुरु द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने मिलकर सुशर्मा और उसके भाई को अर्जुन युद्ध लड़ते लड़ते उसे शेष पांडवो से दूर ले जाने के लिए कहा|


तेहरवे दिन सुबह सुशर्मा अर्जुन को लड़ते लड़ते दूर ले गया और अर्जुन की अनुपस्थिति में गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने हेतु "चक्रव्यूह " रच डाला |पर वीर बालक अभिमन्यु ने,जिसकी वय बमुश्किल १६-१७ वर्ष होगी , चक्रव्यूह को तोड़ने की कला का रहस्योदघाटन करते हुए पांडव सेना की कमान संभाली|उसने अपने ताऊश्री युधिष्ठिर और भीम को अपने पीछे आने को कहा और 'चक्रव्यूह ' में घुस गया पर सिन्धु नरेश राजा जयद्रथ, जिसे एक दिन युद्ध में पूरी पांडव सेना को रोक सकने का वरदान प्राप्त था,ने युधिष्ठिर ,भीम इत्यादि को रोक लिया और अभिमन्यु को चक्रव्यूह में जाने दिया|अभिमन्यु में चक्रव्यूह को भेद डाला था और इसके प्रहरी दुर्योधन पुत्र लक्ष्मण और दुशासन पुत्र को मार डाला था |इसके उपरांत उसने अश्मक पुत्र,शल्य पुत्र रुध्मराथा ,द्रिघ्लोचन ,कुन्दवेदी ,शुसेना,वस्तिय आदि कई वीरो को यमराज के पास पंहुचा दिया|उसने द्वन्द युद्ध में कर्ण जैसे महारथी को घायल कर दिया और अश्वत्थामा ,क्रिपाचार्य और भूरिश्रवा जैसे रथियो को पराजित कर दिया|पर अपने प्रिय पुत्र लक्ष्मण की मृत्यु से बोखलाए दुर्योधन ने खतरे को भांपते हुए सभी महारथियों को बालक अभिमन्यु पर एक साथ प्रहार करने को कहा जिसके परिणामस्वरूप कर्ण,अश्वत्थामा ,भूरिश्रवा ,क्रिपाचार्य,द्रोणाचार्य ,शल्य,दुर्योधन,दुशासन जैसे महारथियों ने एक साथ अभिमन्यु पर प्रहार किया और उसके अस्त्र-शस्त्र समाप्त करवा दिए|फिर कर्ण ने उस बालक के रथ को तीर से तोड़ डाला और उस निहत्थे बालक पर सभी महारथी एक साथ टूट पड़े|वो निहत्था बालक रक्त की अंतिम बूँद तक इन महारथियों से रथ के पहिये को उठा कर लड़ा पर तलवारों ने उसकी जान ले ली|और फिर जयद्रथ ने बालक अभिमन्यु के शव को पाँव से मारा |"यह सब उसी प्रकार से था जैसे एक सिंह को सौ सियारों ने घेर कर मार डाला और फिर उस बहादुरी का जश्न मनाया हो|"

बालक अभिमन्यु के वध के लिए जयद्रथ ने अपने वरदान का प्रयोग किया जो किसी भी दुरात्मा का मुख्य लक्षण है । श्री मैथली शरण गुप्त की कृति जयद्रथ वध में अभिमन्यु को वीरों के मध्य लड़ते हुए इस प्रकार छंदित किया है -
"कुछ प्राण भिक्षा मैं न तुमसे मांगता हूँ भीती से ;
बस शस्त्र ही मैं चाहता हूँ धर्मपूर्वक नीति से । 
कर से मुझे तुम शस्त्र देकर फिर दिखाओं वीरता ;
देखूं , यहाँ फिर मैं तुम्हारी धीरता , गंभीरता । "

अपने पुत्र अभिमन्यु के कायरता पूर्वक वध के लिए अर्जुन ने जयद्रथ को उत्तरदायी मानते हुए प्रतिज्ञा की कि - "मैं कल सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध कर दूंगा और अगर मैं ऐसा न कर पाया तो अग्नि कुंड में कूद कर जान दे दूंगा । "
अर्जुन की प्रतिज्ञा के बारे में जान कर जयद्रथ अत्यंत भयभीत हो गया । और अर्जुन के मुख से अपने लिए ऐसी प्रतिज्ञा सुन कर कोई भी महारथी भयभीत हो जाता परन्तु जयद्रथ का दुर्भाग्य इतना प्रबल था कि अर्जुन का सखा कृष्ण उसका सारथि था जिसके रहते अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी होकर ही रहती । 
किन्तु अर्जुन की प्रतिज्ञा से दुर्योधन बड़ा ही प्रसन्न हुआ क्योंकि उसे द्रोणाचार्य के व्यूह पर पूरा विश्वास था कि द्रोण के रहते अर्जुन जयद्रथ तक नहीं पहुँच पायेगा और स्वयं ही आत्मदाह कर लेगा । 
द्रोणाचार्य ने अर्जुन से जयद्रथ की सुरक्षा हेतु तीन व्यूहों की रचना की । अर्जुन समेत सभी पांडव इन व्यूहों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध थे । पूरे दिन घमासान युद्ध हुआ । युद्ध में कौरव सेना की पांच वाहिनियाँ पूरी तरह से ध्वस्त हो गयी । फिर भी द्रोणाचार्य का व्यूह पांडवों के लिए अभेद्य सिद्ध हो रहा था । ऐसी स्थिति में सूर्य अस्त होने को था ही और जयद्रथ एवं अर्जुन के मध्य पूरी कौरव सेना बाधक बन कर खड़ी थी । तब ही वासुदेव कृष्ण ने अधर्म को शक्तिशाली होते देख अपनी माया का पासा फेंका । योगीश्वर श्री कृष्ण ने अपनी योगमाया द्वारा सूर्य को ग्रहण लगा दिया और सूर्य अस्त हो गया ऐसा जान कौरव सेना व जयद्रथ में उत्साह की लहर दौड़ गयी । जयद्रथ अपनी विजय के मद में अँधा हो अर्जुन के पास आया तभी कृष्ण ने योगमाया का अवसान किया और अर्जुन से जयद्रथ वध को कहा । साथ ही उसे जयद्रथ के पिता के वरदान का रहस्य बताते हुए पशुपात अस्त्र का प्रयोग करने को कहा । पशुपात अस्त्र के प्रयोग से जयद्रथ का शिर तपस्यारत उसके पिता की गोद में पड़ा । आस्मिकता के भाव में उसके पिता उठ खड़े हुए और जयद्रथ का शिर भूमि पर गिर गया । उसके पिता के शिर के खंड खंड हो गए । इसप्रकार वृधाक्ष्त्र का वरदान उसके लिए ही शाप सिद्ध हुआ । 
इस पूरे प्रकरण से ग्वाले गोबिंद की गुप्तचर प्रणाली का भी पता लगता है जो युद्ध क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण है । इसी प्रणाली के द्वारा वासुदेव कृष्ण ने जयद्रथ के रहस्य को अर्जुन के सामने उद्घाटित कर अर्जुन के प्राण बचाए । 
महत्वपूर्ण ये है कि अधर्म चाहे कितनी भी वरदान की ओट में छिप जाए , चाहे कितने भी योग्यतम व्यक्तित्व मिलकर अधर्मी की रक्षा का व्यूह रचे परन्तु धर्म का व्यूह सर्वोच्च ही रहेगा और धर्म के पास सदैव ही कृष्ण जैसा अतिमानव उपस्थित रहेगा । आज संसार में अनैतिक आचरण वाले और अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करने वाले अनेक जयद्रथ हैं परन्तु जब जब ये धर्म की हानि करेंगे , कृष्ण जैसा रक्षक सदैव धर्म की रक्षा करेगा । 
धन्यवाद । 







Sunday, September 30, 2012

महाभारत और धर्मराज युधिष्ठिर : महाभारत ब्लॉग १७

महाभारत की पौराणिक कथा में सबसे पवित्र किरदार युधिष्ठिर को माने तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी | वैसे तो सब मधुसूदन की माया का खेल है , पर इस माया रुपी कथा सरिता में भी युधिष्ठिर ही मोती बनकर निकला है | जिस प्रकार रामायण कथा में श्री राम सदैव मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये उसी प्रकार युधिष्ठिर भी महाभारत कथा में मर्यादा पुरुषोत्तम ही रहे बस समय के अनुसार घटनाक्रम थोडा बदल गया | क्योकिं समय के साथ पाप, पुण्य,मर्यादा पुरुषोत्तम आदि की परिभाषायें भी बदल जाती है | साथ ही युधिष्ठिर को धर्मराज भी कहा जाता है क्योकिं उस युग में भी उसने धर्म को सदैव निभाया और सदैव ही नैतिक कार्यो का समर्थन भी किया | वैसे धर्मराज की इतनी बड़ी संज्ञा स्वयं श्री कृष्ण को भी नहीं मिली थी क्योकिं उस कान्हा ने सदैव अधर्म को पराजित किया चाहे नैतिकता के बल पर हो या अनैतिकता के बल पर | अतः कुछ अनैतिक अनुप्रयोगों के कारण इतिहास केशव को धर्मराज नहीं कहता | वैसे भी संज्ञायें मानवों के लिए होती है अति मानवों के लिए नहीं | पर जो भी हो ,उस ग्वाले का धर्मस्थापना का हठ ही युधिष्ठिर के महाभारत युद्ध लड़ने और जीतने का कारण बना | अतः हम कह सकते है कि युधिष्ठिर जहाँ प्रकृति के धर्म रूप थे वहीँ श्री कृष्ण अधर्म संहारक रूप | परन्तु दोनों ही एक दूसरे के पूरक थे क्योंकिं दोनों की प्रतिबद्धता केवल और केवल धर्म के प्रति थी | जहाँ एक ओर युधिष्ठिर धर्म के सौम्य रूप थे वहीँ दूसरी ओर श्री कृष्ण धर्म के रूद्र रूप | 

धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म माता कुंती के गर्भ से , 'धर्म' के आशीर्वाद स्वरुप 'निरोध' विधि द्वारा राजा पाण्डु के क्षेत्रज पुत्र के रूप में हुआ | वह युवराज 'सुयोधन' से वय में बड़े थे अतः सिंहासन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे | परन्तु राजा पाण्डु की मृत्यु ने युधिष्ठिर को न केवल धृतराष्ट्र का आश्रित बना दिया अपितु उसे अपने प्राणों का भय भी सताने लगा क्योकिं दुर्योधन किसी भी कीमत पर इस पाँच भाइयों का विनाश चाहता था | फिर भी इस विपरीत परिस्थितियों के बावजूद युधिष्ठिर ने 'धर्म' और नैतिकता का दमन नहीं छोड़ा | माना युधिष्ठिर को 'धर्मराज' होने की भविष्य में भारी कीमत चुकानी पड़ी परन्तु युधिष्ठिर के 'धर्मराज' होने के कारण ही यह महायुद्ध , धर्म और अधर्म के बीच युद्ध कहलाया जहाँ एक खेमा धर्म के पक्ष में था और दूसरा अधर्म के पक्ष में | साथ ही आज मैं युधिष्ठिर को सम्मान के साथ आपके सामने पेश कर रहा हूँ क्योकिं 'धर्मराज' होना ही इसके लिए उत्तरदायी है |

युधिष्ठिर को इन्द्रप्रस्थ का राज्य मिला और उन्होंने राजसूय यज्ञ संपन्न किया | राजसत्ता होते हुए भी युधिष्ठिर में अहंकार नहीं आया और उसने जन की भलाई में राज्य को निहित किया | उसने राज्य से सभी अधार्मिक और अनैतिक कार्यो को बंद करवा दिया और उस समय की राजप्रिय क्रीडा 'द्यूत' अर्थात जूए को भी उसने बंद करवा दिया | परिस्थितियां बदली और दुर्योधन के मंतव्य को पूरा करने हेतु राजा धृतराष्ट्र ने सम्राट युधिष्ठिर को 'द्यूतक्रीड़ा' में आने का निमंत्रण भेजा | युधिष्ठिर को भलीभांति ज्ञात था कि जूए का यह खेल अमंगलकारी ही होगा परन्तु पिता समान धृतराष्ट्र की आज्ञा की अवज्ञा करने का साहस युधिष्ठिर में नहीं था | साथ ही 'द्यूतक्रीड़ा' उस समय के क्षत्रिय समाज में युद्ध - निमंत्रण के समान था जिसे पूरा करना हर क्षत्रिय का धर्म माना जाता था अतः वह हस्तिनापुर की राजसभा में 'द्यूतक्रीड़ा' करने गया |

शकुनी जैसे खिलाडी के सामने युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी समेत सर्वस्य हार गया | परन्तु जब द्रोपदी का वस्त्रहरण हुआ तब शायद युधिष्ठिर ने धर्म की गलत परिभाषा को अंगीकार किया उसे पिता समान धृतराष्ट्र की आज्ञा और द्यूत जैसे नीच खेल की मर्यादा का तो ख्याल था परन्तु उसे 'नारी-मर्यादा' का ध्यान नहीं आया | शायदअब तक नियमों के बन्धनों से बंधा 'युधिष्ठिर का धर्म' , मधुसूदन के 'व्यापक धर्म' को बस छू ही पाया था ; उसे पूरी तरह अंगीकार नहीं कर पाया था |

परन्तु बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास ने युधिष्ठिर को 'व्यापक धर्म' समझ आ गया था और यह परिघटना युधिष्ठिर के लगातार चिंतन और ऋषियों के सानिध्य के फलस्वरूप संभव हुई | ऐसे कई कहानियाँ प्रकाश में आई है जब धर्म के सार्वभौमिक चिंतन के द्वारा युधिष्ठिर ने अपनी और अपने भाइयों की जान बचाई थी |

एक ऐसी ही घटना यक्ष से जुडी हुई है | यहाँ 'यक्ष' एक प्रकार की मनुष्य प्रजाति है जोकि 'दक्षों' और 'रक्षों' से भिन्न थी और संगीत कला व् तंत्र-कला में निपूर्ण थी | इस घटना में एक बार पीने का पानी ख़त्म हो जाने के कारण भीम एक तालाब से पानी भरने जाता है किन्तु उस तालाब पर एक यक्ष अधिकार जमाता है | फलस्वरूप भीम से उसका युद्ध होता है और वह भीम को मूर्छित कर देता है | भीम की तलाश में क्रमशः अर्जुन , नकुल , सहदेव जाते है और उनका भी यही हश्र होता है | अब जब स्वयं युधिष्ठिर जाता है तब यक्ष कहता है कि अगर तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दोगे तो मैं तुम्हारे एक भाई को जाने दूंगा | युधिष्ठिर यह शर्त मानकर उसके सभी प्रश्नों का सही उत्तर देता है | जब यक्ष पूछता है कि कौनसे भाई को अपने साथ ले जाना चाहते हो तब युधिष्ठिर नकुल का नाम लेता है | यक्ष इसका कारण जानना चाहता है तो वह कहता है कि मेरी माता कुंती का वंश तो मैं चला लूँगा पर माता माद्री का वंश कौन चलाएगा?? ऐसा सुनकर यक्ष प्रसन्न होता है और उसके सभी भाइयों को मुक्त कर देता है |

यह कथा एक प्रतीकात्मक कथा है जो युधिष्ठिर कि धर्मशीलता को प्रकट करती है | ऐसी कई कथायें और भी प्रचलित है जो युधिष्ठिर को 'धर्मराज' घोषित करती है |

महाभारत के युद्ध में भी अश्वत्थामा वध की भ्रामक सूचना के अतिरिक्त युधिष्ठिर सदैव सत्यवादी ही रहे और महाभारत युद्ध के पश्चात् भी उनके जीते-जी ही स्वर्ग में जाने की कथा का उल्लेख मिलता है |अतः हम कह सकते है कि महाभारत ग्रन्थ में युधिष्ठिर ही 'संत-स्वभाव' का योद्धा रहे जो सदैव मानवता के पक्ष में युद्ध से परहेज़ करते रहे | यहाँ तक उन्होंने अहिंसा और मानवता की व्यापक हानि को मद्देनज़र् रखते हुये अपने हक के लिये होने वाले युद्ध को भी दरकिनार करना चाहा पर केशव की इच्छा के आगे मानव की इच्छा को दबना है | क्योकिं वासुदेव श्री कृष्ण ने तो उन सभी युद्धोन्मुख वीरों को पहले ही मार दिया था जब वे धर्म-च्युत हुए थे , युद्ध बस अब तो उन्हें रक्तिम करने और अग्नि देव के सुपुर्द करने का बहाना था |

वैसे युधिष्ठिर 'धर्मात्मा' अवश्य थे किन्तु 'कायर' नहीं | क्योकिं उन्हें भी 'महारथियों' में से एक माना जाता था जो किसी भी 'रथी' और 'अतिरथी' को परास्त कर सकता हो | वे एक सच्चे मानवतावादी थे जो युद्ध को समाज की 'कोढ़' समझते थे | आज के इस वातावरण में फिर हमें एक 'युधिष्ठिर-धर्म' की आवश्कता है जो विपरीत और सघन परिस्थितियों में भी सत्य और मानवता का दामन थामे रहे | साथ ही आवश्कता है केशव के 'व्यापक धर्म' की जो 'युधिष्ठिर-धर्म' को समय-समय पर संभाल सके |
धन्यवाद |

Saturday, June 23, 2012

महाभारत और रानी माद्री : महाभारत ब्लॉग १६

महाभारत और कुछ सन्दर्भ में आज मैं उस पात्र का बखान करने जा रहा हूँ जिसका इस महापर्व में किरदार तो बहुत छोटा है , परन्तु उससे सम्बंधित घटनाये पूरे कालखंड को प्रभावित करती सी प्रतीत होती है |
माद्री , मद्र देश की राजकुमारी , महाराज पांडु की दूसरी पत्नी थी | जब पांडु हस्तिनापुर से अघोषित वनवास काट रहे थे तब उनका सामना मद्र देश के राजा शाल्य से युद्ध क्षेत्र में हुआ जिसमे उन्होंने शाल्य की सेना को पराजित किया | पांडु की इस वीरता से प्रभावित राजा शाल्य ने अपनी एकमात्र बहिन माद्री का हाथ पांडु के हाथ में दे दिया | परम सुंदरी माद्री को पांडु ने स्वीकार किया और वो पांडु की दूसरी पत्नी के रूप में पांडु और कुंती के साथ रहने लगी |
एक दिन पांडु वन में आखेट कर रहा था तब उसका बाण प्रणय क्रिया में रत एक ऋषि जोड़े को जा लगा | इससे अपने प्राण संकट में पा कर ऋषि जोड़े ने पांडु को श्राप दिया कि जब भी पांडु स्वयं प्रणय क्रीडा में रत होगा तब मारा जायेगा | एक और कारण था कि पांडु का स्नायु तंत्र बेहद कमज़ोर था अतः वह थोड़ी भी उत्तेजना बर्दाश्त नहीं कर पाता था | उसका मन तो काम के प्रति आकर्षित था पर काम के मध्य होने वाली उत्तेजना के प्रति वह कमज़ोर स्नायु की वज़ह से भयभीत था |
पर जब पांडु के पुत्र प्राप्ति का सवाल आया तब ऋषि अगस्त्य ने कुंती को ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए वरदान और मंत्र के बारे में बताया जिसके द्वारा वह किसी भी देवता का आव्हान करके , उस देवता के गुणों युक्त पुत्र को 'निरोध' द्वारा प्राप्त कर सकती है अतः उसने 'धर्म' से युधिष्ठिर , 'वायु' से भीम और 'इन्द्र' से अर्जुन को प्राप्त किया और ये तीनो ही पांडु के क्षेत्रज पुत्र कहलाये | पर नियमानुसार कुंती 'निरोध' से केवल तीन पुत्र ही जन्म दे सकती थी अतः उसने ये मंत्र माद्री को दे दिया | माद्री ने 'अश्विनी कुमारों' के आव्हान से नकुल और सहदेव को जन्म दिया |
एक दिन जब माद्री सरोवर में नहा रही थी तब उसके रूप-सौंदर्य और लावण्या को देख पांडु में काम भाव जाग गया और उनसे अपनी स्नायु की कमजोरी और श्राप को भुला दिया और माद्री में रत होने लगा | माद्री भी पांडु के बारे में जानते हुए भी अपने पति में रत होने लगी , परन्तु जैसा की नियति का खेल था कि पांडु उत्तेजना नहीं सह पाया और उसका रक्त उसके सिर पर चढ़ गया और उसके मुख से बाहर आने लगा | तुरंत ही पांडु की मृत्यु हो गयी | पांडु को मरा पाकर माद्री चिल्लाने लगी और स्वयं को उसकी मौत का दोषी मानने लगी |
जब पांडु के अंतिम संस्कार का समय आया तब उसने माता कुंती को अपने पुत्रो को संभला दिया और स्वयं अपने आप को पांडु की मृत्यु का दोषी मानते हुए प्राशचित करने के लिए अपने पति के साथ जलती चिता में सती हो गयी |
सती होने का ये उदाहरण महाभारत के महापर्व में संभवतः पहला और अंतिम ही है | पर इस उदाहरण ने न जाने कितनी स्त्रियों को सती होने पर विवश कर दिया क्योकि हमारे समाज का अभिजात्य वर्ग लगभग १९ वी सदी तक इस उदाहरण को देता रहा और स्त्रियों को उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ जबरन पति की चिता में धकेलता रहा | ये उदाहरण न केवल भारतीय समाज में व्यापक बुराई लेकर आया अपितु हमारी आधी आबादी को सदैव तिरस्कृत और अपने पुरुष जीवन साथी से हीन बताता रहा |
पर असल में यहाँ माद्री के सती होने की गलत व्याख्या धर्म के ठेकेदारों द्वारा की गयी | माद्री , जो की पति के प्रेमवश और प्रति की मृत्यु के प्राशचित वश अग्नि में कूदी थी , को सतियो का आदर्श मानकर दूसरी स्त्रियों को सती होने के लिए बाध्य किया गया | वो ठेकेदार सती माद्री मर्म नहीं समझ पाए और उसकी परिणति अधर्म में कर दी |
बाद में माता कुंती ने सदैव नकुल और सहदेव को अपना पुत्र मानकर पला तथा स्त्री कर्त्तव्य की शानदार मिशाल पेश की |
धन्यवाद 

 


Tuesday, March 27, 2012

महाभारत और युवराज दुर्योधन : महाभारत ब्लॉग १५

'दुर्योधन' या 'सुयोधन' , जिसके इर्द-गिर्द ही अधर्म ने और उसके नेत्रहीन पिता ने अपनी विजय का ताना बाना बुना था , इस जयसंहिता का मुख्य पात्र था | और दुर्योधन का अहंकार भाव ही इस युद्ध की कटु परिणति का मुख्य कारण था | वो दुर्योधन अंत तक भी वासुदेव कृष्ण की धर्म स्थापना में आसक्ति को नहीं समझ पाया और अपने भाई-बान्धवों का समूल नाश करवा बैठा | पर क्या दुर्योधन का इस परिदृश में उपस्थित होना और उसकी अनीति ही महाभारत के विनाशकारी समर का कारण था ? , शायद नहीं | दुर्योधन को ही सिर्फ दोष देना ऐसा ही होगा जैसा दीये की कालिख के लिए केवल लौ को ही दोष देना और कालिख में तेल की भूमिका को नगण्य मानना |पर जो भी हो , दुर्योधन के नियमपूर्ण अधर्म और वासुदेव कृष्ण के नियमहीन धर्म के परस्पर युद्ध में धर्म का ही पलड़ा भारी रहा और इसी विजय ने इस जयसंहिता को 'धर्मग्रन्थ' का दर्जा दे दिया |
पर दुर्योधन ने संसार को कुछ सबक दिए जो आने वाले समय में सभी समाजों को चरित्र ही बन गया , जैसे भीम की हत्या की कोशिश और छल-बल द्वारा पांड्वो को राजसिंहासन से दूर रखना | आज की राजनीतिक परिस्थितियां भी इस "दुर्योधन विधा" पर आश्रित है | कोई भी दल सत्ता के लिए कोई भी ''दुर्योधन प्रपंच" लगाने से नहीं चूकता है | 
दुर्योधन का जन्म माता गांधारी की कोख से हस्तिनापुर के महल में हुआ पर जन्म से ही वह बालक विवादों और महत्वाकांशाओ की बलि चढ़ गया | अपने पति के नेत्रहीनत्व से रुष्ट गांधारी ने अपने पुत्र को युवराज बनवाने के लिए , माता कुंती से पहले बालक को जन्म देने की कोशिश में अपने ही गर्भ पर कई प्रहार किये परन्तु युधिष्ठिर का जन्म उस बालक से पहले हो गया | इस बात से निराश गांधारी ने बालक को जन्म तो दिया पर गर्भ में ही चोट लग जाने से बालक कमजोर पैदा हुआ | उसे बचाने के लिए हस्तिनापुर के कई वैध्य लगे और उसे बचाकर उसका नाम 'सुयोधन ' रखा गया | सुयोधन का अर्थ है भीषण आघातों से युद्ध करने वाला | पर बालक सुयोधन पर पिता की राजगद्दी की महत्वकांशा और माता व् मामा के हस्तिनापुर के विनाश के मंसूबों ने विपरीत प्रभाव डाला | जब पांडव पुत्र माता कुंती के साथ वन से हस्तिनापुर आये तब सुयोधन को इन पांच पांड्वो को देखकर क्रोध और प्रतिस्पर्धा की भावना का अनुभव हुआ और वह मन ही मन उन ऋषि वेश धारी पांडव पुत्रो से घृणा करने लगा | पर जब उसे युधिष्ठिर के भावी राजा बनने के बारे में पता चला तब वह कुंठा से भर उठा क्योकि जिस राजप्रासाद वो बचपन से स्वयं की सम्पत्ति समझ कर बैठा था उसे ये पांडव छीन सकते थे | बस यही से सुयोधन से 'दुर्योधन' का जन्म हुआ और उसने पांडव पुत्रो को अपने मामा शकुनी की सहायता से समाप्त करने की कोशिशें शुरू कर दी |
सर्वप्रथम उसने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी भीम को समाप्त करने के लिए उसे प्रमाणकोटी में विष दे दिया और उसे गंगा में फेक दिया पर गंगा में भीम को विषैले साँपों में डस लिया जिससे पूर्ववर्ती विष और सर्प विष दोनों का प्रभाव नष्ट हो गया और भीम बच गया | तत्पश्चात दुर्योधन ने लाक्षाग्रह में पांडवो को जलाना चाहा पर वह सफल नहीं हो पाया |
वस्तुतः दुर्योधन पांडवो को राजसिंहासन का असली उत्तराधिकारी नहीं समझता था क्योकि धृतराष्ट्र , पांडू से बड़ा था पर नेत्रहीन होने के कारण उसे राजा नहीं बनाया गया | परन्तु अब वह कुरुकुल के ज्येष्ठ पुत्र  धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र था अतः वह स्वयं को ही युवराज समझता था | और अब चूकी उसके पिता तख़्त पर आसीन थे तब वह युवराज बनने के सपने आँखों में संजोये बैठा था | साथ ही वह पांडवो को पांडू के असली पुत्र नहीं मानता था क्योकि पांडव 'निरोग' से उत्पन्न हुए थे और पांडू उनका जैविक पिता नहीं था |लेकिन जैसा की नियम था कि राजा का पुत्र ही राजा बन सकता है अतः युधिष्ठिर ही तख़्त का असली वारिस था और साथ ही युधिष्ठिर ज्येष्ठ कुरु पुत्र था | 
दुर्योधन को कलियुग का अवतार माना जाता है क्योंकि उसने कलियुग में होने वाले सभी राजनीतिक हथकंडो को अपना रखा था | वह परम राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ व्यक्ति था | साथ ही उसमे नेतृत्व करने का गुण युधिष्ठिर से अधिक था | वह गदा युद्ध में संसार का महानतम और अद्वितीय योद्धा था ; यहाँ तक स्वयं यदुवंशी बलराम , जोकि भीम और दुर्योधन दोनों के गुरु थे , भी दुर्योधन को सर्वश्रेष्ठ गदाधारी मानते थे | उसमे बेशक बल तो भीम से कम था परन्तु चपलता आकाशीय बिजली के सामान थी | उसकी इन्ही क्षमताओं के फलस्वरूप अनेक राजा महाभारत युद्ध में उसके सहगामी बने |
परन्तु दुर्योधन , युधिष्ठिर की तुलना में नैतिक रूप से पतित था और उसके राजा रहते पृथ्वी पर 'धर्मराज्य' की स्थापना असंभव थी | और धर्म की स्थापना ही योगेश्वर कृष्ण का परम लक्ष्य था अतः पांडवो का साम्राज्य ही उस मधुसूदन के लक्ष्य को पूर्ण कर सकता था |
जब युधिष्ठिर को युवराज बनाया गया तब दुर्योधन ने लाक्षागृह का षड़यंत्र रचा जिससे पांडवो को असुरक्षा की भावना के फलस्वरूप वन में छुपकर रहना पड़ा तब पांडवो की अनुपस्थिति में उसने स्वयं को युवराज घोषित करवा लिया | जब पांडव लौटे तब उसने युवराज पद पर अपना दावा जताते हुए पद से हटने से इनकार कर दिया | तब धृतराष्ट्र को पुत्र को राज्याधिकार देने के लिए कुरु राज्य को विभाजित करना पड़ा और युधिष्ठिर को इन्द्रप्रश्थ (आधुनिक दिल्ली नगर में ) का राज्य देना पड़ा | 
जब धर्मराज युधिष्ठिर ने परम वास्तुकार मायावी राक्षस से इन्द्रप्रश्थ महल का निर्माण करवाया तब उसने सभी राजाओं और युवराजों को महल देखने के लिए और 'राजसूय' यज्ञ में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया | जैसे ही इस महल को दुर्योधन ने देखा वैसे ही उसके मन में ईर्ष्या और द्वेष ने घर कर लिया | जब वह महल को देख रहा था तब उसे फर्श पर बने जलकुंड और धरातल का फर्क नहीं दिख पाया और वह धरातल के जाल में जल में गिर गया | इस दृश्य को देख द्रोपति हसने लगी और कहा , "अंधे का पुत्र अँधा " | यह बात दुर्योधन में घावों में नमक की तरह चुभ गयी और यहीं से द्रोपति के अपमान की भूमिका तैयार हो गयी |
जब दुर्योधन हस्तिनापुर पंहुचा तब उसने शकुनी की सहायता से द्यूत की योजना तैयार की जिसमे शकुनी के पासों पर एकाधिकार की सहायता से उसकी विजय हुई और पांडव द्रोपति समेत स्वयं को भी हार बैठे | उसने पांडवो पर बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास की शर्त थोप दी और कहा कि अगर पांडवो ने सफलतापूर्वक ये शर्त पूरी कर दी तो वो उनका राज्य लौटा देना अन्यथा अगर वो अज्ञातवास में ढूंढ लिए गए तो उन्हें दुबारा बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास भोगना होगा | अब उसने एकवस्त्रा पांचाली को बालों से राज्यसभा में घसीटकर लाने की आज्ञा दी | जब दुशासन द्वारा पांचाली को लाया गया तब उसने द्रोपति को दासी संबोधित करते हुए अपनी जंघा पर बैठने को कहा और 'दासी का कोई सम्मान नहीं होता ' ऐसा कहते हुए दुशासन को उसे निर्वस्त्र करने को कहा | ये वाकया दर्शाता है कि महाभारत काल में स्त्रियों कि स्थिति गिर चुकी थी और दासों और दासिओं से पशुवत व्यवहार किया जाता था |
तब भीम ने दुर्योधन कि जंघा युद्ध भूमि में तोड़ने और दुशासन का लहू पीने व् पांचाली के केशों पर लगाने कि प्रतिज्ञा की |
जब पांडव बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास पूरा करके आये तब दुर्योधन ने उन पर ढूंढ लिए जाने का आरोप लगाया और उन्हें 'सूई की नोक ' के बराबर भूमि देने से इनकार कर दिया | जब वासुदेव कृष्ण शांति प्रस्ताव लेकर कुरु सभा में गए तब उसे भी दुर्योधन ने ठुकरा दिया | 
अब युद्ध अवश्यम्भावी था और पर उसने युद्ध में भी अपनी छल नीति को नहीं छोड़ा और बालक अभिमन्यु की युद्ध के नियमों के विरुद्ध हत्या कर दी | बस यही से वासुदेव कृष्ण का भी युद्ध नियमों से मोह हट गया पर वैसे भी वो ग्वाला केशव नियमों को ताक में रखकर धर्म की निर्णायक विजय के लिए कृतसंकल्प होकर ही युद्ध में उतरा था | 
जब भीम और दुर्योधन का गदायुद्ध चल रहा था तब गांधारी के सतीबल और दुर्योधन के कड़े व्यायाम के फलस्वरूप , दुर्योधन लोहे के समान कठोर हो गया पर उसका जंघा इतना कठोर नहीं था | अतः इस भीषण महायुद्ध में भीम की पराजय होती दिख रही थी | चूकी दुर्योधन के सभी सम्बन्धी मारे जा चुके थे अतः वह राज्य लेने का इच्छुक नहीं था पर भीम से जीतना उसका परम लक्ष्य बन चुका था | इस स्थिति में भीम थकने और हारने लगा तब माधव कृष्ण भीम को दुर्योधन की जंघा तोड़ने के प्रतिज्ञा याद दिलवाई | जब भीम ने युद्ध के नियमों के विपरीत दुर्योधन की जंघा पर प्रहार किया और वो महावीर लड़ाका दुर्योधन भूमि पर गिर पड़ा | नियमों के मुताबिक गदा युद्ध में पेट से नीचे प्रहार वर्जित था | पर जिन मर्यादाओ को दुर्योधन ने जीवनभर तोडा उन्ही मर्यादाओं को तोड़कर दुर्योधन को भूमि पर मरणासन्न अवस्था में गिरा दिया गया और उसे अपने अनैतिक कार्यो को याद करने के लिए वहीँ छोड़ दिया गया |
इस तरह अन्यायी दुर्योधन को वासुदेव कृष्ण ने समाप्त करवा दिया | पर जो विरासत दुर्योधन छोड़ गया उसे स्वयं वासुदेव कृष्ण भी समाप्त नहीं कर पाए | वो विरासत आज लगभग प्रत्येक शासक , राजनीतिज्ञ बड़ी शान से अपना रहा है | आज फिर कई दुर्योधन है , अब फिर भीम की ज़रूरत है , अब फिर वासुदेव कृष्ण जैसों की ज़रूरत है |इन 'दुर्योधन वंशजों' का विनाश निश्चित है ,क्योंकि 'धर्म' चुप रह सकता है पर 'अधर्म' के आगे लाचार नहीं |
धन्यवाद |

Thursday, January 05, 2012

महाभारत और गुरुभक्त एकलव्य : महाभारत ब्लॉग १४

महाभारत और कुछ सन्दर्भ में मैं आज उस पात्र की चर्चा करने जा रहा हूँ जिसका महाभारत युद्ध में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था फिर भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन का यह व्यक्ति विकल्प हो सकता था| वो व्यक्ति निषाध राजकुमार एकलव्य था जिसकी गुरु भक्ति और समर्पण भावना ने आज भी शिक्षा जगत को अचंभित किया हुआ है| कहते है कि 'गुरु के प्रत्यक्ष प्रशिक्षण के बिना ज्ञान प्राप्ति मुश्किल है ' परन्तु एकलव्य न केवल आत्म प्रशिक्षण की एक मिसाल है अपितु जो व्यक्ति स्वयं ही चीज़े सीखना और जानना चाहता है, उसके लिए एकलव्य प्रेरणास्त्रोत है| आज भी शिक्षा के क्षेत्र में एकलव्य बड़ा ही सम्मानित नाम है और कई विध्यार्तियों के लिए आदर्श है|
एकलव्य का जन्म भारतवर्ष के निषाध कबीले में निषाधराज हिरन्याधनुष के घर हुआ था | वैसे तो एकलव्य के जन्म के बारे में कई धारणाएं प्रचलित है | कहीं लिखा है कि एकलव्य वासुदेव के भाई देवाश्रवा और निषाध कन्या का कानन पुत्र था जिसको हिरन्याधनुष ने पाला-पोसा था जिस कारण वो कृष्ण का रक्त संबंधी हुआ और कोई कहता है कि वो श्रुतकीर्ति और हिरन्याधनुष की संतान था और श्रुतकीर्ति की पुत्री रुक्मणी जिसका विवाह वासुदेव कृष्ण से हुआ था | अतः वो वासुदेव कृष्ण का साला हुआ| परन्तु उस निषाध राजकुमार की प्रतिभा और समर्पण भावना किसी परिचय की मोहताज नहीं है|
माता के मना करने के उपरांत भी , छोटा बालक एकलव्य आँखों में धनुर्धारी बनने का ख्व़ाब लेकर गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा | पर द्रोणाचार्य ने बालक एकलव्य को 'निषाध' होने के कारण शिक्षा और प्रशिक्षण देने से मना कर दिया क्योकि वो केवल क्षत्रिय राजकुमारों को ही शिक्षित करते थे | यह एक तरह का भेदभावपूर्ण रवैया हो सकता है परन्तु इसके पीछे उनका मानना था कि समाज की रक्षा के लिए क्षत्रिय आरक्षित है और अगर अन्य वर्गों को उनका दिया हुआ शस्त्रों का ज्ञान मिल गया तो वो क्षत्रियो के विरुद्ध इसका दुरूपयोग कर सकते है और अगर समाज में वर्ग संघर्ष पनपेगा तब समाज की रक्षा का मुख्य दायित्व अधूरा रह सकता था| पर जो भी हो आज की परिस्थितियों में यह नीति भेदभावपूर्ण ही होगी क्योकि अब समानता का युग है और राजसत्ता राजाओ से छिनकर प्रजा के हाथ में आ गयी है|
अब गुरु द्रोणाचार्य से हताश और निराश ये निषाध पुत्र स्वयं ही राजकुमारों का प्रशिक्षण देखकर और मन ही मन में गुरु द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानकर वन में धनुर्विद्या का कड़ा अभ्यास करता और गुरु में श्रद्दा बनाये रखने के लिए उसने मिटटी से गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा बना ली| वह प्रतिदिन गुरु प्रतिमा को प्रणाम करके और राजकुमारों के प्रशिक्षण को देखकर प्रत्येक गुर का बड़ी एकाग्रता और समर्पण से सीख कर अभ्यास करता| 
एक दिन गुरु द्रोणाचार्य कुरु राजकुमारों को प्रशिक्षण देने वन में ले गए वहां सभी राजकुमार बड़े मनोयोग से अभ्यास कर रहे थे कि एक कुत्ते की भौकने की आवाज ने उनकी एकाग्रता को भंग कर दिया | तब गुरु द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन से उस कुत्ते की आवाज बंद करने को कहा पर जैसे ही अर्जुन कुछ कर पाता ,कुत्ते की आवाज यकायक बंद हो गयी पर जब कुत्ते को द्रोणाचार्य ने देखा तो पाया कि उस कुत्ते का मुँह बाणों से इस प्रकार बंद कर दिया गया है कि कुत्ते की भौकने की आवाज भी बंद हो गयी और कुत्ते के मुँह पर बाणों की कोई नोक भी नहीं चुभी| इतने उत्कृष्टता से बाण संधान करने के लिए प्रतंचा पर लगा बल और दूरी का सही संतुलन आवश्यक था और ऐसी उत्कृष्टता गुरु द्रोणाचार्य के किसी भी शिष्य में नहीं थी|
उस कुत्ते पर लगे बाण की दिशा में खोज करने पर द्रोणाचार्य ने देखा कि एक किशोर अत्यंत एकाग्रता से बाण चला रहा है | जब द्रोणाचार्य उस किशोर के पास गए तब उस किशोर एकलव्य ने अपने गुरु को सामने पाकर चरणस्पर्श किया | तब गुरु द्रोणाचार्य ने कहा - 'हे पुत्र ! तुम धनुर्विद्या में अत्यंत उत्कृष्ट हो , तुम्हारा गुरु कौन है '| तब गुरु के संबोधन से गदगद एकलव्य ने विनीतभाव से कहा -'हे ब्रह्मणश्रेठ ! मेरे गुरु स्वयं आप ही है '| यह सुनकर आश्चर्यचकित द्रोणाचार्य ने पूछा -'कैसे'| तब एकलव्य उन्हें मिटटी की उस प्रतिमा के पास ले गया जिसे वह गुरु मानकर अभ्यास करता था | स्वयं की प्रतिमा देखकर द्रोणाचार्य ने कहा-'हे पुत्र ! मुझे याद नहीं है कि मैंने कब तुम्हे शिक्षा दी अतः स्पष्ट रूप से कहो '| तब एकलव्य ने कहा कि जब बाल्यकाल में आपने मुझे शिष्य के रूप में ग्रहण करने से मना कर दिया था तब मैंने आपको गुरु मानकर और राजकुमारों के प्रशिक्षण को देखकर स्वयं ही अभ्यास किया है | अतः आप ही मेरे गुरु है |
किशोर एकलव्य की बातें सुनकर गुरु द्रोणाचार्य को स्नेह और रोष दोनों की अनुभूति हुई | स्नेह इसलिए कि बालक ने अपनी लगन के बलबूते ही उनके प्रत्यक्ष शिष्यों से भी बढ़कर काम किया था और फिर भी वह विनम्र भाव से गुरु का आदर करता रहा था | और रोष इसलिए कि उसने चुपके -चुपके हस्तिनापुर की युद्धशाला में राजकुमारों का प्रशिक्षण देखा था जो कि राज्य के कानून के विरुद्ध था और इस कार्य के लिए उसे राज्यदंड भी मिल सकता था |
और तभी उन्हें अर्जुन को दिया हुआ आशीर्वाद याद आ गया कि 'अर्जुन ही आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनेगा ' परन्तु एकलव्य की प्रतिभा और मेहनत ने द्रोणाचार्य के आशीर्वाद की राह में रोड़े अटका दिए थे और एकलव्य के रहते अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं था|

अतः अपने आशीर्वाद को पूरा करने और चुपके से देखे गए प्रशिक्षण के फलस्वरूप मिलने वाले राजदंड से बचाने के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में एकलव्य से उसके दांये हाथ का अंगूठा मांग लिया | जिससे एकलव्य  बाण संधान करने में असमर्थ हो जाता और उसकी सीखी विद्या का कोई महत्व नहीं रहता | इस गुरुदक्षिणा को सुनकर सभी कुरु राजकुमार अचंभित रह गए पर गुरुभक्त एकलव्य ने एक ही झटके में अपना दायें हाथ का अंगूठा काट कर गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया | बस इसी पल ने इस निषाध राजकुमार को अमर कर दिया और भारतीय इतिहास में एकलव्य एक नाम ही नहीं बल्कि किवदंती बन गया |
चूकि हिरन्याधनुष मगध नरेश जरासंघ की सेना में सेनापति था अतः एकलव्य भी जरासंघ की सेना में शामिल हुआ और उसने जरासंघ के आदेश पर रुक्मणी के शिशुपाल के साथ विवाह के लिए , शिशुपाल और रुक्मणी के पिता भीष्मक के मध्य संदेशवाहक का कार्य किया और जरासंघ एवं यादवों के युद्ध में कृष्ण के हाथो मारा गया |
परन्तु आज भी कुछ समीक्षक गुरु द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांगना अनैतिक मानते है | पर इसी घटना ने एकलव्य को अमर कर दिया था और वैसे भी अगर एकलव्य सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होता तो निश्चित रूप से जरासंघ के पक्ष में लड़ता और अधर्म के पक्ष में लड़ने के कारण मारा भी जाता | पर उसकी कीर्ति को ग्रहण लग जाता और आज हम उसे इसतरह याद नहीं करते जिस तरह अब तक करते आये है| मैं इस महान गुरुभक्त को उसकी समर्पण भावना और गुरुभक्ति के लिए प्रणाम करता हूँ|
                                                  धन्यवाद |

Tuesday, December 20, 2011

महाभारत और गांधारराज शकुनी : महाभारत ब्लॉग १३

जयसहिंता के इस अध्याय में उस चरित्र के बारे में चर्चा करेंगे जो द्वापर युग के गुणधर्म का बखान करता है और साथ ही मानवता को सीख देता है कि बुद्धि बल ,शस्त्र बल से भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है परन्तु बुद्दि का अनुचित उपयोग न केवल उस व्यक्ति विशेष का विनाश कर देती है अपितु उसके प्रियजनों का भी विनाश कर देती है|वह चरित्र ,जिसमे द्वापर युग की सभी बुराईया अपने पूर्ण रूप में विद्धमान थी, गान्धारराज शकुनी था |
शकुनी था तो बहुत चालाक और उसने अपनी साज़िशो से सदैव ही पांडवो को मुसीबत में डाला परन्तु उस देवकीनंदन के सामने शकुनी की धूर्ता भी कम थी जिसने धर्म की विजय के लिए शकुनी की सभी चालों को अंत में मात टिका दी| जैसा की स्वयं वासुदेव कृष्ण ने गीता में कहा है -"द्यूतं छलयतामस्मि  तेजस्तेजस्विनामहं| जयोअस्मि व्यवसायोअस्मि सत्वं सत्ववतामहं ||" अर्थात् मैं छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियो में तेज हूँ| मैं विजय हूँ, मैं साहस और बलवानो में बल हूँ|

शकुनी का जन्म गांधार के राजा सुबाल के राजप्रासाद में हुआ था|वह माता गांधारी का छोटा भाई था| वह जन्म से ही विलक्षण बुद्धि का स्वामी था अतः राजा सुबाल को अत्यन प्रिय था |गांधार वह राज्य जहाँ आधुनिक अफगानिस्तान का शहर कंधार बसा हुआ है| कंधार ,गांधार का ही अपभ्रश है|गांधार राज्य सैन्य और क्षेत्रफल की दृष्टि से तो कमजोर था परन्तु एक स्वाभिमानी राज्य था|
हस्तिनापुर में जब राजकुमार धृतराष्ट्र की वय विवाह अनुरूप हो रही थी तब माता सत्यवती के साथ-साथ पितामह भीष्म की भी चिंता बढ़ती जा रही थी और कारण थी धृतराष्ट्र की नेत्रहीनता| कोई भी राजा हस्तिनापुर के राजसी वैभव को देखकर भी नेत्रहीन धृतराष्ट्र से अपनी कन्या का विवाह नहीं चाहता था| अतः कन्या का अपहरण करने के सिवा और कोई उपाय नहीं दिखाई दे रहा था पर धृतराष्ट्र तो इसके योग्य भी नहीं था | एक उपाय था कि स्वयं पितामह भीष्म कन्या का अपहरण कर लाये जैसा कि उन्होंने विचित्रवीर्य के लिए किया था परन्तु अम्बिका और अम्बालिका ने उनसे इस कार्य को दुबारा न करने का वचन ले लिया था|उस समय गांधार राजकुमारी के रूप लावण्य की चर्चा पूरे आर्यावर्त में थी अतः पितामह भीष्म गांधार की राजसभा में धृतराष्ट्र का रिश्ता लेकर गए|परन्तु जैसा कि भीष्म को आभास था राजा सुबाल ने इस विवाह प्रस्ताव को ठुकुरा दिया |अब पितामह भीष्म को क्रोध आ गया उन्होंने अपनी सेना के साथ गांधार पर चढ़ाई करने और उस छोटे से राज्य को समाप्त करने की धमकी दी|अंततः राजा सुबाल को भीष्म के आगे झुकना पड़ा और अत्यंत क्षोभ के साथ अपनी सुन्दर पुत्री का विवाह राजकुमार धृतराष्ट्र से करना पड़ा|
विवाह की बात शायद युवती गांधारी पचा न पाई और उसने भी जीवन भर हस्तिनापुर और अपने पति धृतराष्ट्र को न देखने की प्रतिज्ञा कर ली और अपनी आखों पर सदा के लिए पट्टी बांध ली|स्वाभिमानी राज्य गांधार के लिए यह अपमान का घाव युद्ध में पराजय से भी अधिक था पर एक राजा ने अपनी प्रजा को बचाने के लिए अपनी पुत्री को भीष्म के हाथो बेच दिया था | कहने को तो गांधारी  धृतराष्ट्र की ब्याहता थी पर केवल तन से,मन से नहीं| राजा सुबाल ने भी अपमान का बदला लेने की ठान ली और कुरु कुल के और भीष्म के विनाश की प्रतिज्ञा मन ही मन कर ली|इस प्रयोजन हेतु राजा सुबाल ने अपने पुत्र शकुनी को तैयार किया और कहा कि- कुल के अपमान का बदला लेने के लिए और कुरुकुल को समाप्त करने के लिए मैं तुझे हस्तिनापुर भेज रहा हूँ | तू अपनी बहन के साथ हस्तिनापुर जायेगा और कुरुकुल को समाप्त करने और अपना आधिक्य जमाने की भूमिका तैयार करेगा|
एक कहानी और भी सामने आती है कि गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से पहले एक बकरे से किया गया और फिर उस बकरे की बलि दे दी गयी | जिससे गांधारी विधवा हो गयी और धृतराष्ट्र से गांधारी का दूसरा विवाह हुआ माना गया | इस तरह ये धृतराष्ट्र का अपमान हुआ| परन्तु जब ये बात धृतराष्ट्र को पता चली तो उसने सुबाल समेत सभी परिवार वालो को कारागार में डाल दिया और उन्हें केवल एक वक़्त का भोजन दिया जाता था जिससे ये सब भूखे मर जाये| पर सुबाल ये भोजन शकुनी को दे देते थे ताकि उनमे से कोई तो जिन्दा बचे|इस तरह शकुनी ने अपने परिवार की मृत्यु का बदला लेने की ठान ली|
पर चाहे जो भी रहा हो शकुनी जैसा तेज और चुस्त दिमाग वाला व्यक्ति प्रतिहिंसा का भाव लिए हस्तिनापुर के राजमहल में उपस्थित था|उसने अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु गांधारी के पुत्रो और धृतराष्ट्र की महत्वाकान्शा को चुना | सर्वप्रथम उसने गांधारी को  धृतराष्ट्र को वश में करके उसके भाई पाण्डु के विरुद्ध षड़यंत्र रचने और राज्यसिंहासन पर धृतराष्ट्र का आधिपत्य जमाने को कहा | तदनुपरांत उसने बालक दुर्योधन को अपना शस्त्र बनाया और उसके मामा के रूप में पाण्डु पुत्रो को समाप्त करवाने की योजनाये बनाने लगा| क्योकि पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर ही हस्तिनापुर के तख़्त का सही हकदार था और युधिष्ठिर के रहते वह कुरुकुल को समाप्त करने की अपनी योजना पर अमल नहीं कर सकता था|सर्वप्रथम उसने दुर्योधन के प्रतिद्वंदी बालक भीम को भी प्रमाणकोटि में विष देकर मारने की योजना बनाई पर असफल रहा|पहले पहल तो गांधारी भी मन में कुरुकुल का विनाश चाहती थी परन्तु बाद में सत्य को भांपते हुए उसने शकुनी का साथ देना बंद कर दिया|
जब युधिष्ठिर हस्तिनापुर का युवराज घोषित हुआ तब शकुनी ने लाक्षागृह का षड़यंत्र रचा और सभी पांडवो को वारणावत में जिन्दा जलाकर मार डालने का प्रयत्न किया | शकुनी किसी भी तरह दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनते देखना चाहता था ताकि उसका दुर्योधन पर मानसिक आधिपत्य रहे और वह इस मुर्ख दुर्योधन की सहायता से भीष्म और कुरुकुल का विनाश कर सके अतः उसने ही पांडवो के प्रति दुर्योधन के मन में वैर भाव जगाया और उसे सत्ता का लोलुप बना दिया|
शकुनी पैर से लंगड़ा तो था पर चौसर अथवा द्यूतक्रीडा में अत्यंत प्रवीण था | उसका चौसर का अभ्यास कहे अथवा उसका पासो पर स्वामित्व ,वह जो चाहता वो अंक पासो पर आते |एक तरह से  उसने पासो को सिद्ध कर लिया था कि उसकी उंगलियों के घुमाव पर ही पासो के अंक पूर्वनिर्धारित थे|कहते है कि वो पासे उसने अपने पिता की हड्डियों से बनाये थे परन्तु उस धूर्त शकुनी ने क्षत्रियो में द्यूतक्रीडा को पुनर्जीवन दिया था और उसने द्यूत को इतना प्रचारित कर दिया था कि कोई भी क्षत्रिय द्यूतनिमंत्रण  को ना नहीं कहता था | द्यूत में ना कहना क्षत्रित्व के अपमान का प्रश्न बन गया था|
जब दुर्योधन इन्द्रप्रस्त से हताश एवं निराश होकर लौटा और मन ही मन में क्षोभ में डूबने लगा तब शकुनी ने दुर्योधन के पांडवो को द्यूतनिमंत्रण देने और हस्तिनापुर आमंत्रित करने का सुझाव दिया | जब युधिष्ठिर शकुनी के साथ खेलने लगा तब शुरूआती बाज़ियाँ युधिष्ठिर को  प्रोह्साहित करने हेतु शकुनी हार गया परन्तु बाद में शकुनी के पासो का चक्र युधिष्ठिर पर चल गया | वो शकुनी ही था जिसने द्रौपदी को दाव पर लगाने को कहा था |इस तरह शकुनी के पासो ने पांडवो को बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञात वास दिलवा दिया|
वनवास में भी शकुनी ने पांडवो पर आक्रमण कर उन्हें मार डालने की साज़िश रची पर वह सफल नहीं हो पाया|शकुनी जानता था कि युद्ध अवश्यंभावी है अतः उसने दुर्योधन को युद्ध के लिए तैयार रहने और शक्ति एकत्रित करने को कहा | बलराम द्वारा दुर्योधन को गदा युद्ध सिखाना और वासुदेव कृष्ण के पास दुर्योधन को सहायता मांगने भेजना ,शकुनी के परामर्शानुसार ही हुआ था|
शकुनी के रूप में द्वापर अपने पूर्ण स्वरुप में विद्यमान था| और इस बात का संकेत था कि कलयुग में शकुनी जैसा पुरुष ,मामा अथवा अन्य रूपों में आसानी से मिल जायेगे और कलियुग में शकुनी तो मिलना आम बात होगी पर कोई कलियुग का पूर्णावतार हजारो शकुनियो का एक शकुनी होगा|
परन्तु महाभारत में भी वो परम सत्ता उपस्थित थी जो सत्य और असत्य,सही और ग़लत,धर्म और अधर्म का भेद जानती थी और वह परम सत्ता वासुदेव कृष्ण के रूप में धर्म के पक्ष में हजारो शकुनियो और हजारो दुर्योधनो को काल-कलवित करने के लिए विद्यमान थी|
महाभारत का युद्ध हुआ ,शकुनी सहदेव के हाथो मारा गया पर शकुनी का प्रण पूरा भी हो गया क्योकि जिस कुरुकुल का वह विनाश चाहता था वो समाप्त हो गया पर अपनी ही बहन के पुत्रो की आहुति पर|
परन्तु प्रश्न है कि शकुनी , मामा शकुनी क्यों बना??क्यों महाभारत का युद्ध हुआ??क्यों भारतवर्ष का इतिहास और वर्तमान उस युद्ध से दूषित हुआ?? और उत्तर है भीष्म की अनुचित प्रतिज्ञा और उसे पूरी करने का हठ|

लेकिन शकुनी ने एक राजनीतिक और कूटनीतिक दुर्गुण का जन्म कर दिया जिसे समाज ने आज आत्मसात कर लिया है , वह है जुए का खेल और राजनीतिक हत्याएँ| और शायद कुरुक्षेत्र की रण भूमि में वासुदेव कृष्ण द्वारा किये गए छल भी शकुनी की नीति का प्रतिउत्तर ही था| क्योकि शकुनी की नीति को उसी की नीति से से परास्त किया जा सकता था | बस फर्क इतना था कि उस केशव ने धर्म को बचाने के लिए शकुनी नीति का उपयोग किया और शकुनी ने धर्म को मिटाने में अपनी नीति का उपयोग किया| पर धर्म इतना बेबस और लाचार कभी नहीं था और न ही होगा कि अनगिनत शकुनी भी उसे धुल चटा सके|
                                                                             धन्यवाद |

Thursday, November 24, 2011

महाभारत और कृष्णा द्रौपदी:महाभारत ब्लॉग १२


महाभारत नामक इस कालजयी रचना की द्रौपदी न केवल मुख्य सूत्रधार थी अपितु प्रत्यक्षतः मुख्य कारण भी थी|कहने को तो इस अग्नि कुंड से उत्पन्न द्रुपद पुत्री का प्रतिशोध और प्रतिहिंसा युद्ध का मूल कारण रहा हो पर इतिहास तो उसके परम सखा और मायावी योगेश्वर कृष्ण और उस मधुसूदन की धर्म के प्रति आसक्ति को युद्ध का कर्ता- धर्ता व हेतु मानेगा ही|
द्रौपदी न केवल रूप लावण्य की धनी थी अपितु बुद्धि और तेज़ में अतिविशिष्ट थी| उसकी इस निर्मल और तेजोमयी काया का कारण उसका अग्नि कुंड से उत्पन्न होना व उसका क्षत्रित्व रहो हो परन्तु उस ग्वाले केशव का विशेष अनुराग और केशव की मित्रता व वत्सलता भी उसकी स्वर्णिम काया का मुख्य रहस्य था|
राजा द्रुपद ,पांचाल नरेश , बहुत ही प्रजावत्सल और न्यायप्रिय था पर जब गुरु द्रोणाचार्य ने प्रतिहिंसा की भावना स्वरुप अर्जुन व अन्य पांडवो की सहायता से गुरु दक्षिणास्वरुप द्रुपद पर आक्रमण कर उसे पराजित किया तथा उसका आधा राज्य हड़प लिया तब क्रोधाग्नि से द्रुपद जल उठा एवं उसने हस्तिनापुर व द्रोणाचार्य से प्रतिशोध की ठान ली |अपनी इसी क्रोधाग्नि में उसने अपने पुत्र धृष्ट्द्युन्म व शिखंडी के साथ द्रौपदी कृष्णा को भी अग्नि दीक्षित किया ताकि वह भी द्रोणाचार्य के विनाश में अपने भ्राताओ की सहयोगिनी बन सके|

पांचाल राजकुमारी पांचाली अत्यंत सुन्दर थी|उसके नयन अपरिमित सागर के समान गहरे,उसके गाल कमल की पंखुडियो के समान गुलाबी रंगत लिए हुए,उसके केश काले मेघो के समान स्याह,चाल मृग के समान तिरछी,कमर कमान के समान मुड़ी हुयी थी|उसका रंग सांवला था जिसके कारण वो कृष्णा कहलाई| इन सब खूबियों के अलावा भी वह सुन्दर युवती सूर्य के समान तेजोमयी थी|शायद संसार का कोई भी वीर पुरुष उसके रूप पर आसक्त हो जाये चाहे वो स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर ही क्यों न हो|पर वो गोबिंद गोपाल तो शायद इस परम सुंदरी से भी अनासक्त था उसकी आसक्ति केवल और केवल धर्म में ही थी|नहीं तो वो जो मधुसूदन सभी परम सुन्दर वस्तुओ का मालिक था ,इस कृष्णा को प्राप्त नहीं कर सकता था?
अपनी अग्नि रूपा पुत्री के लिए योग्य वर ढूंढने हेतु वासुदेव कृष्ण के परामर्शानुसार द्रुपद ने एक अत्यंत कठिन स्वयंवर की रचना की ,पर उस ग्वाले ने स्वयंवर की पूर्ति हेतु ऐसी परीक्षा रखवा दी जो केवल कर्ण और अर्जुन ही इस संसार में पूरी कर सके|
द्रौपदी कृष्णा के स्वयंवर में सभी युवराज और राजकुमार आये और स्वयंवर विजय की शर्त कुछ इस तरह रखी गयी कि "पानी में प्रतिबिंब को देखते हुए जल सतह के ऊपर घुमती हुयी मछली की आँख पर निशाना मारना"|
वहां सभी राजकुमारों ने अपनी क्षमता को परखा पर कोई भी रथी, महारथी व योद्धा इस परीक्षा में उतीर्ण न हो पाया|स्वयं देवकीनंदन कृष्ण उस स्वयंवर के रक्षक थे ताकि कोई भी योद्धा कृष्णा का अपहरण न कर सके|वहां वारणावत से लाक्षाग्रह से बच के निकले ब्राह्मन वेश धारी पांडव भी उपस्थित थे|परन्तु युधिष्ठिर भी अपने आप को इस परीक्षा के अयोग्य जानकर स्वयंवर से परायण कर गए ,लेकिन बलशाली भीम और सव्यसाची अर्जुन कृष्णा के रूप पर मुग्ध हो उठे थे अतः दोनों द्रौपदी को जीतना चाहते थे चाहे शर्त पूरी करके अथवा अपहरण करके|
परन्तु जब स्वयंवर में महारथी कर्ण परीक्षा देने आया तब वासुदेव कृष्ण ने कृष्णा द्रौपदी को इशारो में कर्ण को रुकवाने के लिए कहा क्योकि उन्हें ये आशंका थी कहीं उनकी प्रिय सखी पांचाली कर्ण द्वारा विजित न कर ली जाये |अतः द्रौपदी ने कहा -"विवाह समान कुल में होना चाहिए अतः इस सूतपुत्र से मैं कदापि विवाह नहीं करुँगी"|अपमानित और कुंठित राधेय कर्ण उस स्वयंवर सभा में फिर अपनी ही नियति पर दोष देने लगा और पांचाली से अत्यंत क्रोधित हो उठा | अब गुडाकेश अर्जुन परीक्षा देने आया और बाण की नोक से सटीक निशाना मछली की आँख पर लगाया |सारी सभा आश्चर्यचकित और क्रोधित हो गयी और उस ब्रह्मण वेशधारी अर्जुन पर आक्रमण करने को आतुर हो उठे पर महाबली भीम और अर्जुन ने मिलकर सभी राजकुमारों को धुल चटा दी|

विजित द्रौपदी को लेकर उत्साह पूर्वक भीम एवं अर्जुन माता कुंती के पास पहुचे और कहा कि माता देखिये हम पांचाली द्रौपदी को जीत लाये तब माता कुंती ने प्रश्न किया कि ये कार्य तुम में से किसका है तब दोनों ने एक साथ कहा मेरा माते!!!
असल में अर्जुन ने मछली की आँख पर निशान लगाने के कारणवश व भीम ने द्रौपदी को सभा से सकुशल साथ लाने के लिए किये युद्ध के कारणवश द्रौपदी पर अपना अधिकार जताया |पर जब विवाह की बात हुयी तब बड़े पांडव राजकुमार युधिष्ठिर के अविवाहित रहते अर्जुन अथवा भीम द्रौपदी से विवाह नहीं कर सकते थे अतः इन सभी दुविधाओ को समाप्त करने एवं इन पांचो भाइयो के परस्पर प्रेम को बनाये रखने हेतु कुंती ने पांचाली द्रौपदी की सहमति से द्रौपदी का विवाह पांचो पांडवो से करने का निर्णय किया|यह बात यहाँ उभर कर आती है कि बहुपत्नीत्व की प्रथा तो उस समय आर्य समाज में प्रचलित थी पर उत्तर पंचाल और कुछ आदिम क्षेत्रो को छोड़कर बहुपतित्व की प्रथा का अंत हो चुका था|किन्तु माता कुंती के इस एतिहासिक निर्णय ने बहुपतित्व प्रथा एवं स्त्री स्वछंदता को नवजीवन दिया | 
पांडवो ने द्रौपदी पर अपने अधिकार को संयमित एवं सीमित रखा तथा एक नियमित समय अंतराल के अन्दर ही द्रौपदी किसी एक पांडव की पत्नी व अन्य पांडवो के लिए परनारी थी अतः किसी पांडव पुत्र ने इस सीमा को नहीं लांघा|

समय बीतने के साथ ही द्रौपदी इन्द्रप्रथ की पटरानी बन गयी एवं युधिष्ठिर राज्यसूय यज्ञ करके सम्राट बन गया|परन्तु द्रौपदी को गांडीव धारी अर्जुन से विशेष प्रेम था क्योकि स्वयं अर्जुन ने उसे स्वयंवर में जीता था अतः अर्जुन के सुभद्रा के साथ विवाह से द्रौपदी प्रसन्न नहीं हुयी| साथ ही द्रौपदी अग्निकुंड से उत्पन्न हुयी एक कन्या थी अतः हस्तिनापुर,द्रोणाचार्य और उनके संरक्षक दुर्योधन पर द्रौपदी अत्यंत क्रोधित थी|
महारथी अर्जुन एवं महारथी भीम के पराक्रम तथा वासुदेव कृष्ण के परामर्श के फलस्वरूप इन्द्रप्रस्थ अत्यंत प्रगतिशील हो रहा था अतः सम्राट युधिष्ठिर ने मय दानव के सहयोग से इन्द्रप्रस्थ के वैभव को प्रदर्शित करने के लिए एक शानदार महल का निर्माण करवाया जोकि वास्तुकला व स्थापत्य कला में अद्वितीय था|साथ ही सभी खंडो के राजकुमारों एवं राजप्रतिनिधियो को इसे देखने के लिए निमंत्रित किया गया|जब दुर्योधन इस सुन्दर प्रासाद को देख रहा था तब मन ही मन अत्यंत क्षोभ में डूब रहा था | इस राजमहल में कई जगह मृगमरीचिका के समान फर्श था जहाँ पानी दिखता था वहां ठोस तल था और जहाँ ठोस तल दिखता था वहां जल ताल था |अतः दुर्योधन ठोस तल के फेर में जल ताल में डूब गया ये देख द्रौपदी हस पड़ी और परिहास करते हुए बोली -"अंधे पिता का अँधा पुत्र "| ये सुनकर दुर्योधन अत्यंत क्रोधित हुआ और उसका क्षोभ अपमान में परिवर्तित हो गया |दुर्योधन के मन में पांडवो को नीचा दिखाने एवं द्रौपदी से प्रतिशोध लेने की इच्छा का पुनर्जागरण हो गया|

हस्तिनापुर पहुचे युवराज दुर्योधन को आत्मपीड़ित देख धृतराष्ट्र ने जब इसका कारण जाना तब अपने पुत्र की वेदना को एक राजा सहन नहीं कर पाया| इसी पुत्रमोह ने उस अधर्म की पष्ठभूमि तैयार कर दी जो न केवल भारतवर्ष के इतिहास को कलंकित करता रहेगा अपितु स्त्री जाति के मान सम्मान पर भी आघात करता रहेगा|शकुनी ,जो गंधार नरेश बन चुका था,युद्ध विद्या में तो प्रवीण नहीं था पर उस समय के क्षत्रियो के व्यसन द्यूत अर्थात जुए में अत्यंत कुशल था |वह द्यूत के पासो पर अधिकार प्राप्त कर चुका था अतः उसकी इच्छा अनुसार ही पासों पर अंक आते थे|शकुनी ने दुर्योधन को परामर्श दिया कि सैन्य बल में तुम पांडवो से नहीं जीत सकते पर द्यूत में तुम उनका सर्वस्य हरण कर सकते हो और कोई भी क्षत्रिय द्यूत निमंत्रण को ना नहीं कहता!!!
तब इसी परामर्श को लेकर दुर्योधन राजा धृतराष्ट्र के पास गया और पिता ने अग्रज कुरु के कर्तव्य को त्यागते हुए युधिष्ठिर को मनोरंजन सभा के बहाने हस्तिनापुर बुलवा लिया |जब युधिष्ठिर मनोरंजन सभा में पंहुचा तब बड़े पिताश्री के नाते धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीडा में सम्मलित होने का आदेश दिया|अब धर्मराज युधिष्ठिर को धर्म के आधीन ज्येष्ठ पिताश्री की आज्ञा माननी ही पड़ी|
अब द्यूत का खेल शुरू हो चुका था साथ ही शकुनी के पासे अश्व के समान दौड़ रहे थे|युधिष्ठिर पहले धन ,दासी,राज्य हार चुका था|द्यूत -क्रीडा की सभा में अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे|जिनमे पितामह भीष्म ,गुरु द्रोणाचार्य ,महात्मा विधुर,महारथी कर्ण प्रमुख थे|अब युधिष्ठिर के पास जब कुछ शेष नहीं बचा तब महात्मा विधुर ने राजा धृतराष्ट्र से द्यूत समाप्त करवाने का आदेश देने की प्रार्थना की और पितामह भीष्म ने भी कुछ धीमी वाणी में द्यूत बंद करवाने के लिए कहा परन्तु अँधा राजा तो अपने पक्ष की विजय से उत्साहित होकर इन सभी बातों को दरकिनार कर रहा था|अब द्यूत में नीचता की पराकाष्ठा होने को थी जब युधिष्ठिर ने पहले अपने भाइयों को दाव पर लगाया और उन्हें हार गया तत्पश्चात धर्मराज ने स्वयं को दाव पर लगाया ,और स्वयं को भी दुर्योधन के हाथो हार बैठा|स्वयं को हारने के बाद उसने कहा कि अब मेरे पास कुछ शेष नहीं है तब शकुनी ने उसे द्रौपदी को उसकी सम्पत्ति बताते हुए दाव पर लगाने को कहा और द्रौपदी को धर्मराज हार गया|

द्रौपदी को जीतने के बाद दुर्योधन की आँखों में चमक और बढ गयी क्योकि नियमानुसार अब पांचो पांडव और द्रौपदी उसके दास-दासी थे|दुर्योधन के समीप बैठे कर्ण और शकुनी भी द्रौपदी को दुर्योधन की दासी देखकर अत्यंत प्रफुल्लित हो रहे थे|अब दुर्योधन ने द्रौपदी को भरी सभा में बुलाने का आदेश दिया |आदेश पाकर दुशासन द्रौपदी को लेने कक्ष में गया तब द्रौपदी ने कहा कि-"पहले धर्मराज से पूछ कर आओ कि उन्हें मुझे दाव पर लगाने का क्या अधिकार था,क्या एक पत्नी पति की सम्पत्ति मात्र है??? क्या समाज में स्त्री एक वस्तु है जिसे जब चाहा दाव पर लगा दिया??? और क्या एक मनुष्य को,जो स्वयं को हार चुका है,एक स्वतंत्र व्यक्ति को दाव पर लगाने का अधिकार है???"
दुशासन फिर लौट आया पर अबकी बार दुर्योधन ने उसे केशों से पकड़ कर घसीटते हुए सभा में लाने का आदेश दिया|आदेश सुनकर दास पांडव उत्तेजित हुए पर महावीर भीम को भी दास युधिष्ठिर ने संयम रखने और दास की मर्यादा भंग न करने को कहा |दुशासन एक वस्त्रा द्रौपदी को केशों से पकड़ कर घसीटता हुआ कुरु सभा में ले आया|कुरु सभा में वही प्रश्न द्रौपदी ने दोहराहे पर किसी गणमान्य ने उसका उत्तर नहीं दिया|अब दुर्योधन और सभी मित्रो की बुद्धि पर अधर्म सवार हो गया था अतः: दुर्योधन ने द्रौपदी को अपनी जंघा पर बैठने का निमंत्रण दिया , साथ ही कर्ण बोला-जो स्त्री पांच पुरुषो के साथ रहती है वो 'वेश्या' होती है|
इधर पांचो पांडव अपना आपा खोते जा रहे थे जिसमे भीम विशेषकर कुंठित और कुद्ध था|वह युधिष्ठिर के धर्माचरण से कुंठित एवं कर्ण व दुर्योधन से कुद्ध था|इसी बीच कर्ण ने दुर्योधन को कहा-मित्र द्रौपदी अब तुम्हारी दासी है और दासी का कोई सम्मान नहीं होता तब यह नारी वस्त्रो में क्यूँ खड़ी है|इतना सुनकर आततायी दुर्योधन ने दुशासन को द्रौपदी का वस्त्रहरण करने का आदेश दिया|सारी सभा इस आदेश को सुनकर स्तब्ध रह गयी और विधुर ने राजा धृतराष्ट्र से इस आदेश को वापस लेने की प्रार्थना की|पर' द्रौपदी को दुर्योधन ने जीता है और इस पर उसका अधिकार है अतः मेरा इसमें हस्तक्षेप उचित नहीं है' ऐसा कहकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन का पक्ष लिया साथ ही द्रोणाचार्य और भीष्म भी सभा में कायरो की तरह गर्दन झुकाए बैठे रहे |विधुर को जब इन कायरो से आशा की कोई किरण नज़र नहीं आई तब उसे शस्त्र विद्या ग्रहण नहीं करने का क्षोभ हुआ और धर्म का एकमात्र हिमायती भी सभा छोड़ कर चला गया|

आखोँ में लोलुपता लिए दुशासन द्रौपदी की तरफ बढ़ा| इसी बीच सभा में हो रहे अधार्मिक कार्य की भनक माता गांधारी को लग चुकी थी और उन्होने कौरवो का विनाश समीप जानकर सभा की तरफ प्रस्थान किया |अब अपने पतियो को दासत्व एवं तथाकथित धर्म के मकडजाल में फसे देख पांचाली ने वासुदेव कृष्ण का स्मरण किया|दुशासन ने द्रौपदी का चीर हरण करना शुरू किया तब द्रौपदी चीखते हुए बोली-मेरे कायर पतियो और सभा में बैठे सभी कायर कुल वृद्धो को धिक्कार है कि वो सब मुझ अबला का सम्मान नहीं बचा पा रहे है|एक महात्मा विधुर और राजकुमार विकर्ण ही पूरी सभा में नपुंसक नहीं है|पर मेरा सखा वासुदेव कृष्ण जो सभी अन्यायो और अधार्मिक कृत्यो का प्रबल विरोधी है वो इन सभी दुष्टो को दंड देगा |वासुदेव कृष्ण का नाम सुनकर दुर्योधन और कर्ण के मुख पीले पड़ गए और शकुनी के पासे उलट गए ,यकायक दुशासन का चीर खींचता हुआ हाथ रुक गया|वो वासुदेव कृष्ण अब ग्वाले से देवत्व की ओर बढ़ रहा था|अब दुशासन ,दुर्योधन ,कर्ण ,शकुनी को वासुदेव कृष्ण का सुदर्शन चक्र याद आ गया साथ ही याद आ गया शिशुपाल वध| डरे हुए दुशासन ने चीर हरण बंद कर दिया ,और पूरी सभा में कृष्ण की माया का समावेश हो गया|
गांधारी सभा में पहुची तब डरी व सहमी द्रौपदी ,गांधारी से लिपट कर फूट फूट कर रोई और सारा वृतांत कह सुनाया|गांधारी ने धृतराष्ट्र से कहा कि -आपने आज कौरवो के विनाश का अध्याय लिखा है और इस पुत्र दुर्योधन पर मुझे लाज आती है कि इसने मेरा दूध पीकर भी एक स्त्री को अपमानित किया |आज ये कुरु वंश पापी हो गया है अगर अभी भी कुछ लज्जा बाकि है तो तुरंत पांडवो को दासत्व से मुक्त किया जाये और इन्हें इनका राज्य लौटाया जाये|
ऐसा सुनकर दुर्योधन क्रोधित हुआ और उसने पांडवो को दासत्व से मुक्त करने के लिए मना कर दिया | भीम भी कुद्ध होकर बोला-माता अब तो कौरवो का विनाश होकर रहेगा ,मैं भीम ,प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक इस दुष्ट दुशासन के अपवित्र भुजाओ को काट न दूँ और इस दुर्योधन की जंघा को तोड़ न दूँ तब तक मुझे मोक्ष न मिले |द्रौपदी भी बोली -मैं जब तक दुशासन के रक्त से अपने केशो का अभिषेक न कर लूँ तब तक अपने बाल खुले रखूंगी|

अंततः दुर्योधन ने धृतराष्ट्र व गांधारी के समझाने पर पांडवों को दासत्व से तो मुक्त कर दिया पर राज्य प्राप्ति के लिए बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास की शर्त रख दी |अगर अज्ञातवास में दुर्योधन पांडवों को दूंढले तब पुनः बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास पांडवो को भुगतना पड़ेगा |
धर्म में बंधे व जुए में हारे युधिष्ठिर को काम्यक वन में वनवास के लिए जाना पड़ा |एक बार जब पांडव वन में भोजन के लिए चले गए तब द्रौपदी को पीछे से अकेले पाकर सिंधुनरेश जयद्रथ द्रौपदी के पास आया और उसके रूप को देख कामासक्त हो गया तथा द्रौपदी से प्रणय निवेदन कर बैठा |द्रौपदी ने गांधारी पुत्री दुशाला का पति जानते हुए जयद्रथ के इस दुह्साहस को क्षमा कर दिया परतु कामासक्त जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया |जब पांडव वन से लौटे तो अन्य व्यक्तियों ने पूरा वृतांत सुनाया तब युधिष्ठिर की आज्ञानुसार पांडवो ने जयद्रथ को युद्ध में हरा कर बंदी बना कर युधिष्ठिर के समक्ष पेश किया|तब जयद्रथ को मारने का सुझाव आया तब दुशाला के विधवा होने के भय से पांडवो ने जयद्रथ के केश काटकर सर पर पांच बालो के गुछे छोड़ दिए ताकि जयद्रथ इस अपमान को याद रखे और भविष्य में ऐसी गलती न करे |

द्रौपदी का अपमान होना अभी यही नहीं रुका था अपितु जब पांडव विराट नगर में अज्ञातवास में थे तब द्रौपदी विराट नगर की महारानी की केश सवारने वाली दासी की भूमिका में थी और महारानी के भाई कीचक ,जो कि अत्यंत बलशाली और महावीर था ,की द्रौपदी पर नज़र पड़ गयी और उसने अपनी बहन से दासी द्रौपदी को उसके कक्ष में रात्रि काल में भेजने को कहा | इतना जानकर द्रौपदी ने कीचक से कहा कि-मैं पतिव्रता नारी हूँ,मेरे पांच यक्ष पुरुष पति है अतः आप मुझे अपवित्र करने का साहस न करे अन्यथा मेरे पति आपका वध कर देंगे|परन्तु अपनी शक्ति में उन्मुक्त कीचक को द्रौपदी की भी बात समझ में नहीं आई तब द्रौपदी ने रसोइये भीम और नृत्य सिखाने वाले अर्जुन को यह बात बताई और योजनानुसार रात्रि काल में कीचक को बुलवाया तब भीम ने कीचक का वध कर दिया जो केवल संसार में भीम ,दाऊ,दुर्योधन के अलावा कोई नहीं कर सकता था|

अंतत महाभारत का युद्ध हुआ |द्रौपदी ने ही समय-समय पर पांडवो को प्रतिशोध के लिए ललकारा और महाभारत के युद्ध में महाबली भीम ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की |पर द्रौपदी उसके अपमान से पहले ही हस्तिनापुर से युद्ध चाहती थी क्योकि गुरु द्रोण से अपने पिता के अपमान का बदला चाहती थी|द्रौपदी के पांचो पांडवो से एक-एक संतान हुयी |प्रतिविन्ध्य युधिष्ठिर से,स्रुत्सोम भीम से,श्रुतकीर्ति अर्जुन से,सतानिका नकुल से,स्रुत्कर्म सहदेव से उत्पन्न हुए|परन्तु सभी पुत्र महाभारत के युद्ध के उपरांत द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के हाथो मारे गए|शायद कुछ अहंकार,कुछ प्रतिहिंसा की भावना ने द्रौपदी को धर्म के पक्ष में रहते हुए अधर्म में आसक्त कर दिया था अतः इस कर्मयुद्ध में द्रौपदी को भी उसके कर्मो का दंड मिला और उसके पुत्रो की हत्या हो गयी|
चाहे कोई भी प्राणी चाहे संसार में किसी भी पक्ष में रहे पर उसके कर्मो का दंड प्रकृति उसे दे ही देती है|इस संसार में न तो वासुदेव कृष्ण अपने कर्मो के फल से बच सके है न ही उनकी प्रिय सखी द्रौपदी|
धन्यवाद|

Sunday, August 28, 2011

महाभारत और राजा धृतराष्ट्र :महाभारत ब्लॉग ११

महाभारत के इस व्यापक एवं दूरगामी प्रभाव युक्त इस युद्ध के कई कारण गिनाये गए और इन सभी कारणों को इतिहास ने स्वयं सिद्ध भी किया परन्तु इतिहास आज भी हस्तिनापुर के राज्यसिंहासन पर बैठे उस राजा को इस युद्ध सबसे बड़ा कारण मानता है जो बाह्य एवं आतंरिक रूप से द्रष्टि हीन तो था ही अपितु विवेक हीन भी था |कुरुक्षेत्र की उस युद्ध भूमि में अगिनत वीरों ने अपना लहु बहाया हो और अनेक योद्धाओ ने अपने सर कटाए हो पर एक राजा का एक विवेकपूर्ण निर्णय न केवल युद्ध रोक सकता था अपितु इस युद्ध के दूषित प्रभावों से भी मुक्ति दिला सकता था|पर शायद उस राजा धृतराष्ट्र की बुद्धि पर भी वासुदेव कृष्ण की माया सवार थी जिसने इस पृथ्वी तात्कालिक रूप से अधार्मिक एवं असात्विक लोगो की सत्ता समाप्त कर दी थी|यूँ तो इतिहास भी युद्ध के कारणों में वासुदेव कृष्ण के अधर्म और अन्याय के विरुद्ध रोष को कभी नहीं गिनाता क्योकि शायद महायोगी कृष्ण ने इतिहास पर भी अपनी माया का स्वर्णिम जाल बिछा दिया है|
राजा धृतराष्ट्र का जन्म हस्तिनापुर के राजप्रासाद में विचित्रवीर्य के क्षेत्रज पुत्र के रूप में महारानी अम्बिका की कोख से कृष्ण द्वेपायन के निरोध द्वारा हुआ|बलशाली भुजाओ वाले इस बालक को जब माता सत्यवती ने देखा तब उसे 'राष्ट्र धारण करने वाला अर्थात धृतराष्ट्र' नाम दिया |पर धृतराष्ट्र की नियति ही थी कि वह जन्म से अँधा था जब माता सत्यवती को इस बात का पता चला तब वह निराश हुयी और वेदव्यास को निरोध द्वारा एक पुत्र और उत्पन्न करने को कहा जिसके फलस्वरूप 'पांडु' का जन्म हुआ |अब पांडु ही राज्य का उतराधिकारी चुना गया और अत्यधिक महत्वकांशी धृतराष्ट्र इस बात से बहुत परेशान रहने लगा और मन ही मन हीन भावना का शिकार भी हो गया|आखेट के समय दीन हीन होकर और दया का पत्र बनकर वह पांडु से उसका आखेट मांग लेता और कई मांगे भी वह इसी मुद्रा में पांडु से मनवाने लगा|
जब पांडु राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हुआ तब युद्ध व अपनी स्नायु तंत्र कि कमजोरी छिपाने के लिए वो अधिक समय हस्तिनापुर के बाहर बिताता था तब उसकी अनुपस्थिति में धृतराष्ट्र राज्यसिंहासन पर बैठता था तब उस महत्वकांशी युवक धृतराष्ट्र को सिंहासन पर बैठने और दासियों के कोमल व उत्तेजक स्पर्श का चस्का लग गया|अतः वह अपने भाई पांडु को ज्यादा से ज्यादा समय हस्तिनापुर के बाहर रखने का प्रबंध करने लगा और पांडु के प्रति बनावटी प्रेम दर्शाते हुए उसके शिविर में उसकी आवश्कताओ की सभी वस्तुओ का प्रबंध करने लगा|
थोड़े ही समय पश्चात् पांडु की मृत्यु हो गयी और कोई उतराधिकारी न होने के कारण नए उतराधिकारी के आने तक धृतराष्ट्र राजा बना |चूकिं धृतराष्ट्र को अपने स्वप्न अनुरूप राज्य सिंहासन मिल गया था अतः वह अब इस हस्तिनापुर पर स्थायी सत्ता का आकांशी बन बैठा और अपने पुत्र के माध्यम से अपनी इस महत्वाकान्शा को पूरी करने की सोचने लगा ,पर नियमानुसार वह केवल हस्तिनापुर के उतराधिकारी के सिंहासन पर बैठने तक का राजा था और हस्तिनापुर का उतराधिकारी नियमानुसार राजा पांडु का बड़ा पुत्र ही होता|पर धृतराष्ट्र ने अपनी मह्त्वाकान्शा पूरी करने की ठान ही ली थी अतः उसने पांडु के पुत्र से पहले अपने पुत्र के जन्म का प्रयत्न भी किया पर अंततः युधिष्ठिर का जन्म दुर्योधन से पहले ही हो गया अतः न केवल युधिष्ठिर बड़ा कुरु राजकुमार था अपितु राजा पांडु का बड़ा पुत्र भी था अतः अब वह राज्यसिंहासन का वैध उतराधिकारी हो गया था |

राजा धृतराष्ट्र के लिए दुर्योधन अपनी इच्छा और लालसा को पूरी करने का साधन हो गया था और साथ ही वह दुर्योधन के प्रति पुत्रमोह से ग्रसित हो गया था अतः उसने पांडवो के प्रति दुर्योधन के प्रत्येक दुराचार को संरक्षण प्रदान किया |लाक्षागृह से लेकर पांडवो के साथ धूत क्रीडा में धृतराष्ट्र ने भी सहयोग दिया |उसने दुर्योधन पक्ष को संतुष्ट करने के लिए राज्य का बटवारा भी कर दिया |इतिहास दुर्योधन को द्रोपति चीरहरण और पांडवो के साथ अन्य अन्याय का दुर्योधन को कतई अधिक दोष न दे क्योकि दुर्योधन तो राजा धृतराष्ट्र का प्रतिबिम्ब ही था |जो दुर्योधन गदा युद्ध में संसार में अद्वितीय था ,उस महारथी को कायरता और दूषित राजनीति का पाठ पढ़ाने वाला शकुनी तो अवश्य था पर उन सभी शकुनी नीतियों को संरक्षित करने वाला वास्तविक व्यक्ति धृतराष्ट्र ही था|

जब युद्ध प्रारंभ हो गया तब श्री वेदव्यास ने गन्यविक पुत्र संजय को दिव्यदृष्टि प्रदान की ताकि वह धृतराष्ट्र को युद्ध का पूरा वर्णन सुना सके और सुना सके कि किस तरह वासुदेव कृष्ण का धर्म चक्र उसके पुत्रो के प्राण हरण कर रहा है!ये युद्ध का दृश्य धृतराष्ट्र के लिए नरक की यातनाओ के समान ही था क्योकि इसमें न केवल उसके द्वारा पोषित अधर्म की हार हो रही थी अपितु उसके सभी स्वप्न धराशायी हो रहे थे|जब युद्ध समाप्त हुआ तब धृतराष्ट्र के पास कुछ नहीं बचा शायद उसके अधार्मिक कर्मो का फल उसे उसी जन्म में भुगतना पड़ रहा था|
पर इस सब के पश्चात् भी उसकी कलुष भावना समाप्त नहीं हुयी और जब पांडव उससे ज्येष्ठ पिता के रूप में आशीर्वाद मांगने आये तब उसने अपनी बलिष्ठ भुजाओ द्वारा भीम को मार देने की कोशिश की पर सही समय पर वासुदेव कृष्ण द्वारा धातु की मूर्ति भीम की जगह रख देने के कारण भीम की जान बच गयी|पर जिस व्यक्ति को सौ पुत्रो का आशीर्वाद प्राप्त हो ,तथा जिस व्यक्ति को गांधारी जैसी सती नारी प्राप्त हो ,किन्तु धर्म के आशीर्वाद से वह वंचित रहे तो ये सभी आशीर्वाद और भौतिक सुख भी उसे पतन से नहीं बचा सकते|
धन्यवाद|

Saturday, July 30, 2011

महाभारत और वीर अभिमन्यु :महाभारत ब्लॉग १०

वीर अभिमन्यु ,एक ऐसा व्यक्तित्व जिसकी वीरता ,पौरुष और मृत्यु ने तेहरवें दिन महाभारत के युद्ध की दिशा को बदल डाला|युद्ध के इस तेहरवें दिन ने न केवल युद्ध के तात्कालिक नियमो  को प्रभावित किया अपितु आज तक के सभी युद्धों में युद्ध नियमो की परिभाषा को पूर्णतः समाप्त कर दिया |महाभारत के इस विराट युद्ध से पहले ,युद्ध ,नियमो के अधीन लड़ा जाता था|जिसके अंतर्गत सूर्य उदय से पूर्व और सूर्य अस्त के पश्चात् युद्ध लड़ना और युद्ध  सबंधी कोई भी क्रियाकलाप किसी योद्धा के  कायर होने का सूचक था और युद्ध में निहत्थे योद्धा पर शस्त्र या अस्त्र चलाना किसी योद्धा के कायर होने का प्रमाण था|पर आज की युद्ध नीति में इन सभी नियमो का कोई अवशेष नहीं मिलता है|और ये परम्परा इसी महासमर के तेहरवें दिन के घटनाक्रम की देन है|
अभिमन्यु का जन्म अर्जुन की पत्नी सुभद्रा की कोख से हुआ था|सुभद्रा,जो कृष्ण और बलराम की बहन थी,एक अत्यंत आकर्षक और अस्त्र-शस्त्र चलने में निपुण युवती थी|अर्जुन ने  उसे रेवतक पर्वत पर यादवों के उत्सव में देखा और उसे मन ही मन पसंद कर लिया|बलराम सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते थे पर कृष्ण को अपनी प्रिय बहन का विवाह दुर्योधन जैसे आततायी के साथ बर्दाश्त नहीं था अतः उन्होंने अर्जुन की इच्छा को जानते हुए उसे सुभद्रा से विवाह करने हेतु सुभद्रा का अपहरण करने की सलाह दी और अर्जुन के लिए अपहरण में प्रयुक्त रथ और अस्त्रों-शस्त्रों की व्यवस्था की|अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण कर उससे विवाह किया|पर इस पूरे प्रसंग में प्राचीन भारत की विवाह सम्बन्धी स्वछंदता का आभास मिलता है|क्योकि कुंती कृष्ण की बुआ थी और अर्जुन उसका बुआ पुत्र|पर फिर भी कृष्ण ने अपनी बहन का विवाह अर्जुन से करने में योगदान दिया,पर आज के हिन्दू समाज में ये विवाह अमान्य माना जाता|

अभिमन्यु जब सुभद्रा की कोख में था तब अर्जुन ने सुभद्रा को युद्ध में उपयोग आने वाली 'चक्रव्यूह ' रणनीति  का सविस्तार वर्णन सुनाया क्योकि उस समय केवल गुरु द्रोण,स्वयं अर्जुन और वासुदेव कृष्ण ही 'चक्रव्यूह ' में अंदर घुसना और उससे बाहर निकलना जानते थे|सुभद्रा ने चक्रव्यूह को तोड़ अंदर जाने की बात बड़े ध्यान से सुनी जिससे उसके गर्भ में पल रहे शिशु ने भी ग्रहण कर लिया पर जब अर्जुन उसे चक्रव्यूह से बाहर आने का मार्ग बताने लगा तब सुभद्रा को नींद आ गयी जिससे अभिमन्यु केवल अंदर जाने का रास्ता ही जान पाया|
अभिमन्यु के जन्म के पश्चात् पांडवों को १२ वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा करना था अतः अभिमन्यु द्वारका में वासुदेव कृष्ण के सानिध्य में पला-बढ़ा|अभिमन्यु में सदैव वासुदेव कृष्ण से चक्रव्यूह के पूरे चक्र को सीखने की कोशिश की पर वासुदेव ने उसे कभी बाद में तो कभी अपने पिता से सीखने को कहा|अभिमन्यु का विवाह मत्स्यराज की पुत्री उत्तरा से हुआ |उत्तरा अज्ञातवास के दौरान अर्जुन की शिष्या थी|
अभिमन्यु ,वासुदेव कृष्ण का भांजा और अर्जुन का पुत्र तो था ही पर उसमे अदभुत युद्ध कला थी जिसके दम पर वह अकेला ही कई सेनाओ पर भारी था|

जयसहिंता के अनुसार युद्ध के तेहरवें दिन कौरव सेना के प्रधान सेनापति आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने का विचार रखा ताकि युद्ध समाप्त हो जाये और पांडव हार जाये अतः उन्होंने युद्ध के भयंकरतम व्यूहों में एक 'चक्रव्यूह ' की रचना करने का विचार किया|वैसे युद्ध में कई युद्ध व्यूह उपयोग आते थे जैसे "सर्पव्यूह","कुर्मव्यूह"  आदि पर 'चक्रव्यूह ' सर्वाधिक भयंकर और दुर्जेय था|परन्तु पांडवों में अर्जुन और उनका सारथि मधुसूदन प्रत्येक व्यूह को तोडना जानते थे चाहे वो 'चक्रव्यूह ' क्यों न हो|अतः गुरु द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने मिलकर सुशर्मा और उसके भाई को अर्जुन युद्ध लड़ते लड़ते उसे शेष पांडवो से दूर ले जाने के लिए कहा|
तेहरवे दिन सुबह सुशर्मा अर्जुन को लड़ते लड़ते दूर ले गया और अर्जुन की अनुपस्थिति में गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने हेतु "चक्रव्यूह " रच डाला |पर वीर बालक अभिमन्यु ने,जिसकी वय बमुश्किल १६-१७ वर्ष होगी , चक्रव्यूह को तोड़ने की कला का रहस्योदघाटन करते हुए पांडव सेना की कमान संभाली|उसने अपने ताऊश्री युधिष्ठिर और भीम को अपने पीछे आने को कहा और 'चक्रव्यूह ' में घुस गया पर सिन्धु नरेश राजा  जयद्रथ, जिसे एक दिन अर्जुन के बिना पूरी पांडव सेना को रोक सकने का वरदान प्राप्त था,ने  युधिष्ठिर ,भीम इत्यादि को रोक लिया और अभिमन्यु को चक्रव्यूह में जाने दिया|अभिमन्यु में चक्रव्यूह को भेद डाला था और इसके प्रहरी दुर्योधन पुत्र लक्ष्मण और दुशासन पुत्र  को मार  डाला था |इसके उपरांत उसने अश्मक पुत्र,शल्य पुत्र रुध्मराथा ,द्रिघ्लोचन ,कुन्दवेदी ,शुसेना,वस्तिय आदि कई वीरो को यमराज के पास पंहुचा दिया|उसने द्वन्द युद्ध में कर्ण जैसे महारथी को घायल कर दिया और अश्वत्थामा ,क्रिपाचार्य और भूरिश्रवा जैसे रथियो को पराजित कर दिया|पर अपने प्रिय पुत्र लक्ष्मण की मृत्यु से बोखलाए दुर्योधन ने खतरे को भांपते हुए सभी महारथियों को बालक अभिमन्यु पर एक साथ प्रहार करने को कहा जिसके परिणामस्वरूप कर्ण,अश्वत्थामा ,भूरिश्रवा ,क्रिपाचार्य,द्रोणाचार्य ,शल्य,दुर्योधन,दुशासन जैसे महारथियों ने एक साथ अभिमन्यु पर प्रहार किया और उसके अस्त्र-शस्त्र समाप्त करवा दिए|फिर कर्ण ने उस बालक के रथ को तीर से तोड़ डाला और उस निहत्थे बालक पर सभी महारथी एक साथ टूट पड़े|वो निहत्था बालक रक्त की अंतिम बूँद तक इन महारथियों से रथ के पहिये को उठा कर लड़ा पर तलवारों ने उसकी जान ले ली|और फिर जयद्रथ ने बालक अभिमन्यु के शव को पाँव से मारा |"यह सब उसी प्रकार से था जैसे एक सिंह को सौ सियारों ने घेर कर मार डाला और फिर उस बहादुरी का जश्न मनाया हो|"

पर जो भी हो बालक अभिमन्यु की हत्या ने युद्ध नियमो की बलि ले ली|जिसका ज्यादा खामियाजा कौरवों ने ही भुगता क्योकि कर्ण , द्रोणाचार्य ,दुशासन,और दुर्योधन का वध युद्ध नियमो की इसी बलि के भेट चढ़ा क्योकि जब अधर्म अपनी पूरी नीचता पर उतर आता है तब वासुदेव कृष्ण जैसे नीतिज्ञ भी अधर्म को उसकी औकात दिखा ही देता है|
वैसे अभिमन्यु वध महारथी कर्ण और गुरु द्रोणाचार्य के जीवन में कलंक साबित हुआ और इसी घटना ने इन महारथियों की मृत्यु का मार्ग प्रशस्त किया|कर्ण वध और द्रोणाचार्य वध को इतिहास अभिमन्यु वध के पश्चात् ही तो उचित मानता!!!!
वीर अभिमन्यु को मेरा सदर नमन|
                                                 धन्यवाद|

Wednesday, July 20, 2011

महाभारत और महारथी कर्ण :महाभारत ब्लॉग ९

महाभारत की पूरी कथा में इसके प्रत्येक किरदार का कुछ न कुछ योगदान अवश्य ही रहा है और प्रत्येक किरदार की किसी न किसी गुणधर्म विशेष के प्रति निष्ठा भी अवश्य रही है |जिस प्रकार कृष्ण की धर्म स्थापना में निष्ठा रही और युधिष्ठिर की धर्म पालन में,उसी प्रकार महारथी कर्ण की अपने मित्र दुर्योधन में निष्ठा ही इस युद्ध के अठारह दिन चलने और इतने सैनिकों और इतने महारथियों के विनाश का कारण बनी|वैसे इस महारथी की दुर्योधन के प्रति निष्ठा इसके शापित भाग्य और स्वयं इस के प्रति पूर्व में किये गए भेदभाव का परिणाम था परन्तु  इस दानवीर कर्ण को द्रोपदी वस्त्रहरण और अभिमन्यु वध के लिए इतिहास सदैव दोषी बताता रहेगा|पर जो  भी हो ,नियति का क्रूर मज़ाक जो इस महारथी के साथ हुआ है वो शायद वासुदेव कृष्ण को भी धर्म से अच्युत कर देता|पर जो वासुदेव कृष्ण धर्म की रक्षा के लिए अपने कुल का नाश भी स्वीकार करता हो उसे भला कौनसी शक्ति अपनी निष्ठा से भटका सकती है|

महारथी कर्ण का जन्म माता कुंती की कोख से सूर्य के वरदान स्वरुप हुआ था|परन्तु विवाह पूर्व  कर्ण का जन्म हो जाने के कारण कुंती ने अपने पिता के स्वाभिमान की रक्षा हेतु इस परम तेजस्वी एवं कुंडल और कवच धारी शिशु का परित्याग कर दिया और सूर्य देवता से मुआफ़ी मागते हुए उसे आशीर्वाद देकर नदी में प्रवाहित कर दिया|ये नियति का पहला पासा था जिसने  कर्ण को जन्म लेते ही मात दे दी|नदी में प्रवाहित ये शिशु एक निःसंतान दम्पति के हाथ लगा जिसने इसे अपने पास रख लिया और इस शिशु के माता-पिता बन गए |यह दम्पति वस्तुतः एक सूत जाति के थे जो हस्तिनापुर में निवास करते थे|सूत वो जिनका धर्म ही था रथ हाँकना|अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा और शापित भाग्य लिए ये लड़का धनुर्विद्या में महारथ हासिल किये हुए था|और इसी धनुर्विद्या का परीक्षण करने ये लड़का जब द्रोणाचार्य निर्मित शस्त्रशाला में गया और अर्जुन से चुनौती करने लगा तब अर्जुन और अन्य पांडवो ने इसे प्रतिस्पर्धा करने के अयोग्य माना क्योकि उनके मतानुसार एक सूत पुत्र राजकुमारों से प्रतिस्पर्धा कैसे कर सकता था?और तो और पांडवो ने उसे सूत पुत्र कह अपमानित किया और कहा-"सूत पुत्र को केवल रथ हाँकना ही शोभा देता है,क्षत्रिय राजकुमारों की तरह धनुष बाण नहीं|"
दुर्योधन जो उस समय किशोर अवस्था में था ,पांडवों से चिढ़ता था और पांडवों के कौशल को देख हीन भावना से ग्रसित था,ने उस लड़के कर्ण को देखा और उसके सामर्थ्य को भी|अतः इस परम राजनीतिज्ञ दुर्योधन ने कर्ण को प्रश्रय दिया तथा उसे अपना मित्र बना लिया|अपने अपमान से कुंठित कर्ण दुर्योधन जैसे राजकुमार का साथ पाकर अत्यंत प्रसन्न और कृतज्ञ  हुआ|और उस कर्ण को पांडवो और विशेष रूप से अर्जुन से घृणा सी हो गयी|

जब शिक्षा प्राप्त करने कर्ण द्रोणाचार्य के पास पहुचा तब गुरु द्रोणाचार्य ने उसे मना कर दिया और उसे अपनी जाति का कर्म करने को कहा अतः कर्ण ने मन में ठान लिया कि उसे द्रोणाचार्य जैसे ही गुरु से शिक्षा प्राप्त करनी है इसलिए वह गुरु परसराम के पास पहुचा जो केवल ब्राह्मणों को ही शस्त्र शिक्षा देते थे|अतः वो लड़का शिक्षा प्राप्त करने हेतु ब्राह्मण का छदम भेष धर गुरु परसराम से शिक्षा प्राप्त करने लगा|पर जब किसी कारण वश गुरु परसराम को उसके ब्राह्मण न होने का पता चला तब उसे फिर श्राप मिला कि-"हे छदम रूप धारी शिष्य ! जब तुम्हे मुझसे सीखी हुई विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी तब तुम इसे भूल जाओगे "|ये नियति का दूसरा पासा था जिसने इस युवक कर्ण को मात दे दी|
जब कर्ण शिक्षा प्राप्त कर हस्तिनापुर पहुचा तब कूटनीतिज्ञ दुर्योधन ने उसे मित्रता स्वरुप अंगदेश का राज्य दे दिया जिसे कर्ण ने स्वामी का सेवक के प्रति उपकार मानते हुए ग्रहण किया|वैसे तो दुर्योधन कर्ण को अपना सच्चा मित्र मानता था और उस पर अत्यधिक विश्वास भी करता था पर शायद कर्ण की मित्रता दुर्योधन के पांडवो से भयभीत होने के कारण फलीभूत हुई|
अपने जन्म के रहस्य से अनभिज्ञ इस महारथी ने अपने सूत माता पिता की खूब सेवा की और सूत माता राधा के नाम से 'राधेय' कहलाने लगा|राधेय कर्ण सही मायनों  में राधेय ही था क्योकि जन्म देना माता का कर्तव्य होता है पर लालन पालन करना माता का धर्म होता है और जो माता सही मायनों में दोनों कर्तव्यों का पालन करती हो वो शिशु की पूर्ण माता होती है|पर इस भौतिक संसार में जो माता शिशु का लालन पालन करती है  वो जन्म देने वाली माता से महान होती है|स्वयं देवकी नंदन कृष्ण 'यशोदानंदन ' कहने पर ज्यादा प्रसन्न होते है|
अंगदेश का राजा बनने के पश्चात् कर्ण ने कई युद्धों में अपनी वीरता प्रमाणित की|पर वीर कर्ण न केवल वीर था अपितु एक बड़ा दानी भी|कहते है कि भोर में कर्ण से जो कोई भी कुछ भी मांगता था वो कभी खाली हाथ नहीं जाता था|पर इस ख्याति के बाबजूद इस दानवीर कर्ण का अपमान होना रूक जाता तो इतिहास इस सुर्यपुत्र को कभी अधर्म के साथ होने  का दोषी न मानता पर जब द्रोपदी के स्वयंवर में जब महारथी कर्ण प्रतिज्ञा पूरी करने उतरा जब द्रोपदी ने इस 'सूतपुत्र ' को बाण चलाने से ये कहते हुए रोक लिया कि विवाह समान कुल में होता है किसी सूत पुत्र के साथ नहीं|और फिर इस अपमान ने कर्ण को द्रोपदी के प्रति भी घृणा भाव से भर दिया|
दुर्योधन और शकुनी की संगति ने दुर्योधन के इस घृणा भाव को प्रतिशोध में बदल दिया और अंततः जब एक वस्त्रा द्रोपदी को बालों से घसीटकर कुरु राज्य सभा में लाया गया तब कर्ण ने न केवल द्रोपदी वस्त्रहरण का समर्थन किया अपितु उसे पांच पुरुषों के साथ रहने वाली 'वेश्या ' कहा|और 'वेश्या 'का कोई सम्मान नहीं होता ,यह तर्क देकर वस्त्रहरण को उचित ठहराया|बस यही वो पल थे जब इस महारथी में धर्म का दमन छोड़ दिया और अपनी मत्यु की भूमिका तैयार कर ली|
चूकी कर्ण के पास सूर्य देव का दिया कवच और कुंडल था अतः युद्ध में कर्ण का वध असंभव था अतः वासुदेव कृष्ण ने प्रतिज्ञा के जाल में उलझा कर कर्ण के कवच -कुंडल लेने की योजना तैयार की और देवराज इन्द्र को ब्राहमण का रूप धर प्रातःकाल कवच और कुंडल लाने को कहा ताकि धर्म की विजय हो सके|पर दानवीर कर्ण ने कवच -कुंडल के बिना अपनी मत्यु जानते हुए भी कवच और कुंडल दान में दे दिए| 
पर युद्ध के आरंभ होते -होते यह दानवीर यह समझ चुका था कि वो इस युद्ध में अधर्म के पक्ष में है और जहाँ वासुदेव कृष्ण जैसा नीतिज्ञ हो उस पक्ष की विजय निश्चित है क्योकि वासुदेव  कृष्ण तो स्वयं उसी पक्ष में रहते है जहाँ धर्म का पलड़ा भारी होता है|परन्तु कर्ण को दुर्योधन से निष्ठा का रोग था जिसने उसकी विवेक बुद्धि को निगल लिया था और उसे दुर्योधन का क़र्ज़ उतारने के लिए विवश कर दिया था|
युद्ध के मध्य में जब उसे कुंती का अपनी माता होने और पांडवो का अपने भाई होने का पता चला तब भी दुर्योधन के अहसानों के बोझ तले दबा ये 'राधेय ' अपनी निष्ठा प्रमाणित करने हेतु पांडवों के विरुद्ध लड़ा|और माता कुंती को वचन दिया किया युद्ध के पश्चात् भी उसके पांच पुत्र शेष रहेगे चाहे वो मरे या अर्जुन |वो महारथी युद्ध भूमि में भी अर्जुन से लड़ा और कर्ण-अर्जुन युद्ध के पहले दिन उसने अर्जुन को निरुतर कर दिया पर सूर्य डूब जाने के कारण नियमानुसार अर्जुन का वध नहीं किया पर वासुदेव कृष्ण इस बात को समझ चुके थे कि बिना किसी नियम को तोड़े कर्ण वध संभव नहीं है अतः दुसरे दिन उन्होंने रथ का पहिया लगा रहे कर्ण पर अर्जुन से बाण चलवा कर कर्ण का वध करवा दिया|
मैं मानता हूँ कि वासुदेव कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने निहत्थे कर्ण को मार डाला पर क्या पहले कर्ण ने युद्ध नियम तोड़ कर अभिमन्यु को नहीं मारा था?और क्या धर्म एक कर्ण के कारण हार जाता?मेरे अनुसार धर्म की विजय जरूरी है चाहे हथकंडे नियमानुसार हो या न हो|जिस प्रकार कर्ण ने दुर्योधन के प्रति निष्ठा नहीं छोड़ी और अधर्म के पक्ष में लड़ा तो क्या वासुदेव कृष्ण धर्म स्थापना के प्रति अपनी निष्ठा छोड़ देते?चाहे कर्ण दानवीर हो या महारथी ,चाहे कौन्तेय रहे या राधेय परन्तु धर्म सबसे ऊपर ही रहेगा |
                                                                                            धन्यवाद|

Friday, July 15, 2011

महाभारत और हिडिम्बा :महाभारत ब्लॉग ८

यूँ तो महाभारत में प्रत्येक किरदार का अपना -अपना महत्व है किन्तु कुछ किरदारों की भूमिका छोटी होने के बाबजूद बहुत महत्वपूर्ण और सारगर्भित होती है|ऐसे ही पात्र की चर्चा आज हम करेंगे जो भूमिका छोटी होने के बाद भी अमिट छाप छोड़ जाती है|
महाभारत का ये युद्ध हुआ था न्याय और अन्याय के बीच परन्तु धर्म और अधर्म दोनों ने ही युद्ध  जीतने के लिए युद्ध में वर्जित प्रत्येक हथकंडे को अपनाया|अभिमन्यु वध,द्रोणाचार्य वध ,कर्ण वध,दुस्शासन वध ,जयद्रथ वध आदि  इन्ही कथित हथकंडों से सम्बंधित हैं|परन्तु इस युद्ध में मायावी अथार्थ राक्षसी शक्तियों का प्रयोग भी किया गया|इन सभी मायावी शक्तियों के प्रयोग ने इस युद्ध की दशा और दिशा बदल डाली|कुछ मायावी शक्तियां दुर्योधन के पक्ष से लड़ी और घटोत्कच नाम की मायावी शक्ति धर्म के पक्ष में लड़ी|अतः अब हम घटोत्कच के युद्ध में बलिदान और उसकी माता हिडिम्बा के योगदान की चर्चा करेंगे|
हिडिम्बा ,एक राक्षसी समाज की युवती थी|राक्षस अथार्थ रक्ष जो यक्ष,दक्ष एवं रक्ष तीन मानव नस्लों में से एक थे|चुकि आर्यों(दक्षो ) का भारतवर्ष पर नियंत्रण था अतः उन्होंने रक्षो को जंगलो और काननो ने धकेल दिया|वैसे रक्ष आर्यों से कम सुशिक्षित और मानवभोजी होते थे परन्तु दक्षो से अधिक शारीरिक क्षमता और मायावी शक्तियों से युक्त होते थे|पर सभी रक्ष संगठित और सामाजिक नहीं थे अतः अपने बुद्धि बल और सामाजिक संगठन की बदौलत दक्षो ने रक्षो को सीमित और शक्तिविहीन कर दिया था|
  हिडिम्बा ,इसी समाज में पैदा हुई थी तथा अपने भाई हिडिम्ब के साथ वन में रहती थी|दोनों भाई-बहनों का पूरे जंगल में बहुत आतंक था तथा सभी मानव यहांतक की ऋषि-मुनि भी इस वन में रहने से भय खाते थे क्योकि ये राक्षस न केवल उदरपूर्ति के लिए जंगल के वनचरों को खाते थे अपितु मौका लगने पर मानवो का सुस्वाद मांस भी नहीं  छोड़ते थे|अतः दोनों भाई बहन जंगल में राजा की तरह रहते थे |
लाक्षाग्रह के भीषण कांड के बाद पांडव भी जंगलों में इधर उधर भटक रहे थे|अतः संयोगवश पांडव और माता कुंती उसी वन में पहुचे जहाँ हिडिम्ब और हिडिम्बा का आतंक था|सूचना मिलने पर दोनों भाई बहन मानवों का सुस्वाद मांस खाने के लिए इनके पास गए |वहां जब हिडिम्बा ने भीम को देखा तब उसके राक्षसी डील ड़ोल को देख हिडिम्बा कुछ मोहित सी हो गयी|परन्तु भाई हिडिम्ब के मन में तो मानव मांस की इच्छा थी अतः उसने पांड्वो को ललकारा और डराने लगा|पर भीम जो स्वयं कई हाथियों का बल रखता था ,माता  से आज्ञा लेकर हिडिम्ब से लड़ने और उसका वध करने गया जहाँ भयंकर द्वंद युद्ध में भीम ने हिडिम्ब को मार दिया पर हिडिम्बा को अपने भाई की मृत्यु का कोई अफ़सोस नहीं हुआ बल्कि भीम के इस अमानवीय कृत को देख वो उस पर मोहित हो उठी तथा भीम से उसने प्रणय निवेदन किया|पर भीम ने इसे अस्वीकार करते हुए माता कुंती से आज्ञा लेने  को कहा|  
पहली मर्तबा प्रेम के वशीभूत वो राक्षस कन्या भीम से निराश होकर माता कुंती के पास गयी परन्तु बड़े पुत्र युधिष्ठिर के विवाह न होने के कारण,कुंती ने हिडिम्बा के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया परन्तु जब हिडिम्बा ने केवल प्रणय की बात कही और केवल पुत्र प्राप्ति का लक्ष्य बताया तब कुंती ने इस राक्षस कन्या के इस दीन निवेदन को स्वीकार कर लिया तथा वन में भीम और हिडिम्बा प्रणय रत हुए|जहाँ हिडिम्बा के गर्भ से भीम पुत्र घटोत्कच का जन्म हुआ जो आधा दक्ष और आधा रक्ष था|
उस घटना के बाद भीम तो लौट गए पर हिडिम्बा ने घटोत्कच को राक्षसी संस्कार नहीं सिखाये न ही मानवो का मांस खाना अपितु उसे  अपने पिता की तरह वीरता और मानवता की भलाई की शिक्षा दी|वैसे तो राक्षस कन्या के गर्भ से जन्म लेने के कारण घटोत्कच बलिष्ठ और मायावी था परन्तु उसने राक्षसों जैसे कर्म नहीं किये|जब महाभारत के युद्ध की सूचना हिडिम्बा को मिली तब उस माता ने अपने पुत्र की जान की परवाह करे बगैर धर्म के युद्ध में अपने पुत्र को लड़ने को भेजा वो जानती थी की उसके पुत्र के पास मायावी शक्ति और शारीरिक बल के अलावा कोई शस्त्र और अस्त्र नहीं है और इस युद्ध में कर्ण जैसे महारथी उसे मार ही देंगे पर माता के स्नेह को संतुलित कर उसने घटोत्कच को धर्म युद्ध में पिता के पक्ष में लड़ने भेजा|
जब इस महासमर में घटोत्कच लड़ने आया तब दुर्योधन भी कुछ राक्षसों का प्रयोग  करने पर उतर आया था परन्तु घटोत्कच ने सर्वप्रथम उन राक्षसों को मारा जो दुर्योधन के पक्ष में थे|उसके बाद वो कौरव सेना पर कहर बन कर टूट पड़ा|कहते है कि महारथी कर्ण के पास एक ऐसा बाण था जो उसे सूर्य देव से वरदान में प्राप्त हुआ था और अर्जुन के वध के लिए उसने उसे संभाल कर रखा था|पर घटोत्कच के कहर और प्रहार से बोखलाए दुर्योधन ने कर्ण को उस बाण को चलाने को कहा ताकि घटोत्कच नाम कि ये वर्तमान समस्या का निदान हो जाये अतः युवराज दुर्योधन की आज्ञा से कर्ण ने अपना बाण घटोत्कच पर चला दिया जिससे घटोत्कच की मृत्यु हो गयी|
इस युद्ध में घटोत्कच नाम का शूरवीर तो मारा गया पर उसने कर्ण-अर्जुन युद्ध में अर्जुन की मृत्यु टाल दी|और अर्जुन वो जिसके बाणो के नीचे सभी पांडव सुरक्षित थे|अतः यहाँ से ही धर्म विजय सुनिश्चित हुई|
यूँ तो हिडिम्बा का युद्ध में कोई शारीरिक योगदान नहीं था पर मानसिक और भावनात्मक 'बलिदान ' अवश्य था|उसने न केवल अपने पुत्र के धर्म के पक्ष में लड़ने भेजा अपितु रक्ष कुल का गौरव भी बढाया|और उसका यही "बलिदान" धर्म युद्ध में धर्म की विजय में परिणित हुआ|अतः उस राक्षस कन्या को मेरा सदर नमन|
                                                                                       धयवाद| 

Tuesday, July 12, 2011

महाभारत और माता कुंती : महाभारत ब्लॉग ७

जयसंहिता अथार्त विजय ग्रन्थ  में यूँ तो कई महारथी थे और कई रथी भी|महारथी, वो जो युद्ध में कई रथों का उपयोग कर सकता था  और एक रथ के टूट जाने पर अन्य रथों पर आरूढ़ हो सकता था और रथी ,वह जो केवल एक रथ पर ही युद्ध कर सकता था |रथी और महारथी का निर्णय उस व्यक्ति की शस्त्र और अस्त्र चलाने की क्षमता पर निर्भर था |पर किसी युद्ध के महारथी और रथियों की संख्या संभवतः उन वीरो की माताओ पर निर्भर है कि वो अपने पुत्र को वीरता का पाठ पढ़ाती है या भीरुता का|

माता कुंती उन माताओ में से जिन्होंने अपने पुत्रों को न केवल वीरता का पाठ पढाया अपितु उन्होंने अपने पुत्रों को सदैव मानवता और न्याय का मार्ग भी दिखलाया|यूँ तो माता कुंती का अधिकांश जीवन वनों ,पहाड़ों ,गुफाओ ,कंदराओ और आश्रमों में गुजरा परन्तु इतना सब होते हुए भी उन्हें कभी वैभव और आरामतलबी से कभी आसक्ति नहीं हुई और न ही उन्होंने अपने पुत्रो को इन सभी संसाधनों से आसक्ति होने दी|

माता कुंती  का जन्म राजा सूरसेन  के राजभवन में हुआ था जो वासुदेव के पिता थे|इस तरह माता कुंती वासुदेव कृष्ण की बुआ थी|माता कुंती का प्रारंभिक नाम पृथा था पर  उन्हें संतानविहीन राजा कुन्तिभोज ने गोद ले लिया  अतः उनका नाम कुंती पड़ गया |कुंती को गोद लेने के उपरांत कुन्तिभोज के पुत्र हुआ अतः उन्होंने कुंती को भाग्यवर्धक मानते हुए विवाह होने तक उनकी परवरिश की|
कुंती के जीवनकाल में एक अभूतपूर्व घटना का महत्व बहुत है|माता कुंती को ऋषि दुर्वासा ने एक मंत्र दिया जिसके द्वारा माता कुंती किसी भी देवता का आवहान करके पुत्र प्राप्त कर सकती थी|परन्तु युवती कुंती ने मंत्र की विश्वसनीयता जांचने हेतु उसे सूर्य देव का आवहान करते हुए प्रयोग किया |जिस तरह धनुष से निकला बाण कभी वापस नहीं जाता उसी तरह मंत्र का प्रभाव भी निरर्थक नहीं होता |अतः युवती कुंती विवाह पूर्व ही गर्भवती हो गयी तथा उनके गर्भ से एक पुत्र जन्मा जो सूर्य के सामान कान्ति युक्त और कवच व कुंडल धारण किये था|परन्तु युवती कुंती ने उसे पिता के सम्मान क्षय हो जाने के भय से नदी में प्रवाहित कर दिया|माता कुंती एक माता थी और अपने पुत्र को सीने पर पत्थर रखकर नदी में प्रवाहित करने वाली एक असाधारण नारी भी|
तदनुपरांत उनका विवाह पाण्डु से हुआ|और वो हस्तिनापुर की महारानी बन गयी|चूकि राजा पाण्डु का स्नायु तंत्र कमजोर था और उसे कामारक्त होने पर अत्यधिक उतेज़ना होती थी जिसे वह काबू नहीं कर पाता था|अतः कामारक्त होने पर उसे मृत्यु का भय था|कहते है कि एक बार राजा पाण्डु ने रतिसुख में रत एक हिरन के जोड़े को बाणों से मारा था परन्तु दुर्भाग्य से वो जोड़ा साधू किन्दम और उनकी पत्नी थी अतः उन्होंने पाण्डु को श्राप दिया  कि वो भी जब मारा जायेगा जब वो किसी स्त्री से रत होने लगेगा|राजा पाण्डु ने कुंती के अलावा मद्र देश की राजकुमारी माद्री से भी विवाह किया|
अपनी स्नायु तंत्र की कमजोरी को दूर करने  और किन्दम के वध के प्राश्चित के लिए पाण्डु ने अघोषित वनवास लिया जहाँ उसके साथ उसकी पत्नियाँ कुंती व माद्री भी थी|वहां कुंती ने अपने पति की पुत्र की कामना पूरी करने हेतु ऋषि दुर्वासा के मंत्र और "निरोध " द्वारा धर्म के आवहान करने पर युधिष्ठिर ,वायु देव के आवहान से भीम एवं इन्द्र के आवहान पर अर्जुन की उत्पत्ति की|चूकि "निरोध " द्वारा केवल तीन पुत्र ही धर्मसंगत थे अतः ये मंत्र कुंती ने माद्री को दिया जिससे माद्री ने  अश्विनी कुमारों के आवहान द्वारा नकुल और सहदेव को जन्म दिया|अतः पांच पांडव राजा पाण्डु के क्षेत्रज्ञ पुत्र कहलाये|
परन्तु एक दिन माद्री के स्नान करते हुए राजा पाण्डु कामारक्त हो गया तथा रति सुख को व्याकुल हो उठा |अपने पति की इस अवस्था को देख माद्री भी रति हो गयी और रत होने लगी परन्तु पाण्डु स्नायु तंत्र की कमजोरी को संभाल नहीं पाया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए|
तत्पश्चात माद्री भी अपने पति की मृत्यु का दोषी स्वयं को मानते हुए राजा पाण्डु के साथ सती हो गयी|अब माता कुंती के कंधो पर पांचों पांडवों का भार आ गया |उन्होंने न केवल अपने पुत्रो का लालन पालन किया अपितु माद्री पुत्रो को भी स्नेहयुक्त ममता दी|कहते है कि नकुल और सहदेव को वो स्वयं अपने हाथों से खाना  खिलाती थी और जब लाक्षाग्रह में सुरंग से जाने की बारी तब भी उन्होंने नकुल और सहदेव को पहले भेजा |"वैसे माता केलिए पुत्र ,पुत्र ही होता है|चाहे पुत्र कोई भी हो"|
माता कुंती ने न केवल माता का कर्तव्य निभाया अपितु शिक्षक का भी|उन्होंने सदैव पांड्वो को धर्म का पाठ ही पढाया |और अन्याय के विरूद्ध लड़ना भी सिखाया |परन्तु उनका एक अभागा पुत्र ऐसा भी था जो माता कुंती का स्नेहयुक्त आँचल न पा सका|वो था राधेय कर्ण,जो एक तरह से शापित था अपनी ही पहचान और वीरता से|जब माता कुंती को पाता चला कि उनका एक पुत्र कर्ण अधर्म के साथ खड़ा है तब उन्होंने इसे नियति माना|और धर्म कि विजय हेतु पांडवो को कर्ण का वध करने की आज्ञा भी दी|अब कौन समझाए माता के हृदय को जो अपने पुत्र  को खोना नहीं चाहता किन्तु माता कुंती तो कुंती ही थी जो केवल धर्म के आगे पुत्र का बलिदान दे सकती थी|

कहने को तो माता कुंती ने धर्म विजय में कोई शस्त्र नहीं उठाया पर उनका काम था ऐसे पुत्रों का लालन पालन करना जो इस धर्म के भवन में मुख्य द्वारपाल और रक्षक थे|वैसे तो महाभारत की नीव पहले ही डल चुकी थी पर इस महाभारत में धर्म विजय की नीव माता कुंती ने अपने पुत्रो के सही और बेहतर लालन पालन से डाली|ऐसी माता कुंती ,जो अपने पुत्रो को केवल धर्म और न्याय के साथ खड़ा होना सिखा कर गयी ,को मेरा सादर नमन|
                                              धन्यवाद|